चरख़ा गीत
भ्रम, भ्रम, भ्रम,-- घूम घूम भ्रम भ्रम रे चरख़ा कहता: ’मैं जन का परम सखा, जीवन का सीधा सा नुसख़ा— श्रम, श्रम, श्रम!’ कहता: ’हे अगणित दरिद्रगण! जिनके पास न अन्न, धन, वसन, मैं जीवन उन्नति का साधन- क्रम, क्रम, क्रम!’ भ्रम, भ्रम, भ्रम,-- ’धुन रुई, निर्धनता दो धुन, कात सूत, जीवन पट लो बुन; अकर्मण्य, सिर मत धुन, मत धुन, थम, थम, थम!’ ’नग्न गात यदि भारत मा का, तो खादी समृद्धि की राका, हरो देश की दरिद्रता का तम, तम, तम!’ भ्रम, भ्रम, भ्रम,-- कहता चरख़ा प्रजातंत्र से; ’मैं कामद हूँ सभी मंत्र से’; कहता हँस आधुनिक यंत्र से, ’नम, नम, नम!’ ’सेवक पालक शोषित जन का, रक्षक मैं स्वदेश के धन का, कातो हे, काटो तन मन का भ्रम, भ्रम, भ्रम,--

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