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चश्म-ए-ख़ूबाँ ख़ामुशी में भी नवा-पर्दाज़ है सुर्मा तो कहवे कि दूद-ए-शोला-ए-आवाज़ है पैकर-ए-उश्शाक़ साज़-ए-ताला-ए-ना-साज़ है नाला गोया गर्दिश-ए-सैय्यारा की आवाज़ है...

न बंधे तिश्नगी-ए-ज़ौक़ के मज़मूँ 'ग़ालिब' गरचे दिल खोल के दरिया को भी साहिल बाँधा...

है तमाशा-गाह-ए-सोज़-ए-ताज़ा हर यक उज़्व-ए-तन जूँ चराग़ान-ए-दिवाली सफ़-ब-सफ़ जलता हूँ मैं...

उग रहा है दर-ओ-दीवार से सब्ज़ा 'ग़ालिब' हम बयाबाँ में हैं और घर में बहार आई है...

दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए क्या हुई ज़ालिम तिरी ग़फ़लत-शिआरी हाए हाए तेरे दिल में गर न था आशोब-ए-ग़म का हौसला तू ने फिर क्यूँ की थी मेरी ग़म-गुसारी हाए हाए...

गंजीना-ए-मअ'नी का तिलिस्म उस को समझिए जो लफ़्ज़ कि 'ग़ालिब' मिरे अशआर में आवे...

लेता हूँ मकतब-ए-ग़म-ए-दिल में सबक़ हनूज़ लेकिन यही कि रफ़्त गया और बूद था...

हुई जिन से तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले...

लताफ़त बे-कसाफ़त जल्वा पैदा कर नहीं सकती चमन ज़ंगार है आईना-ए-बाद-ए-बहारी का हरीफ़-ए-जोशिश-ए-दरिया नहीं खुद्दारी-ए-साहिल जहाँ साक़ी हो तू बातिल है दावा होशियारी का...

उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किए बैठा रहा अगरचे इशारे हुआ किए दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया मैं और जाऊँ दर से तिरे बिन सदा किए...

मैं और सद-हज़ार नवा-ए-जिगर-ख़राश तू और एक वो ना-शुनीदन कि क्या कहूँ...

तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो मुझ को भी पूछते रहो तो क्या गुनाह हो...

वाँ उस को हौल-ए-दिल है तो याँ मैं हूँ शर्म-सार यानी ये मेरी आह की तासीर से न हो अपने को देखता नहीं ज़ौक़-ए-सितम को देख आईना ता-कि दीदा-ए-नख़चीर से न हो...

रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़ अक़्ल कहती है कि वो बे-मेहर किस का आश्ना ज़र्रा ज़र्रा साग़र-ए-मै-ख़ाना-ए-नै-रंग है गर्दिश-ए-मजनूँ ब-चश्मक-हा-ए-लैला आश्ना...

हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन वर्ना हम छेड़ेंगे रख कर उज़्र-ए-मस्ती एक दिन...

हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है...

रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए सर्फ़-ए-बहा-ए-मय हुए आलात-ए-मय-कशी थे ये ही दो हिसाब सो यूँ पाक हो गए...

काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब' शर्म तुम को मगर नहीं आती...

कल के लिए कर आज न ख़िस्सत शराब में ये सू-ए-ज़न है साक़ी-ए-कौसर के बाब में हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद गुस्ताख़ी-ए-फ़रिश्ता हमारी जनाब में...

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है आख़िर इस दर्द की दवा क्या है...

कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता...

समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है क्या कहिए...

देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है मैं उसे देखूँ भला कब मुझ से देखा जाए है...

क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब' वो काफ़िर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाए है मुझ से...

ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं भूले से उस ने सैकड़ों वादे वफ़ा किए...

न सुनो गर बुरा कहे कोई न कहो गर बुरा करे कोई...

इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं...

मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं सिवाए ख़ून-ए-जिगर सो जिगर में ख़ाक नहीं...

काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब इक आबला-पा वादी-ए-पुर-ख़ार में आवे...

गुंजाइश-ए-अदावत-ए-अग़्यार यक तरफ़ याँ दिल में ज़ोफ़ से हवस-ए-यार भी नहीं...

नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का मस्ती से हर निगह तिरे रुख़ पर बिखर गई...

या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो ये महशर-ए-ख़याल कि दुनिया कहें जिसे...

हाँ अहल-ए-तलब कौन सुने ताना-ए-ना-याफ़्त देखा कि वो मिलता नहीं अपने ही को खो आए...

ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की फ़लक का देखना तक़रीब तेरे याद आने की खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या रब क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की...

आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए मुद्दआ अन्क़ा है अपने आलम-ए-तक़रीर का...

ग़ैर को या रब वो क्यूँकर मन-ए-गुस्ताख़ी करे गर हया भी उस को आती है तो शरमा जाए है...

मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए जोश-ए-क़दह से बज़्म चराग़ाँ किए हुए...

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है...

गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हा-ए-रोज़गार लेकिन तिरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा...

नश्शा-हा शादाब-ए-रंग ओ साज़-हा मस्त-ए-तरब शीशा-ए-मय सर्व-ए-सब्ज़-ए-जू-ए-बार-ए-नग़्मा है हम-नशीं मत कह कि बरहम कर न बज़्म-ए-ऐश-ए-दोस्त वाँ तो मेरे नाले को भी ए'तिबार-ए-नग़्मा है...