आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं उज़्र मेरे क़त्ल करने में वो अब लावेंगे क्या...
ग़म नहीं होता है आज़ादों को बेश अज़-यक-नफ़स बर्क़ से करते हैं रौशन शम्-ए-मातम-ख़ाना हम महफ़िलें बरहम करे है गंजिंफ़ा-बाज़-ए-ख़याल हैं वरक़-गर्दानी-ए-नैरंग-ए-यक-बुत-ख़ाना हम...
दिल लगा कर लग गया उन को भी तन्हा बैठना बारे अपनी बेकसी की हम ने पाई दाद याँ हैं ज़वाल-आमादा अज्ज़ा आफ़रीनश के तमाम महर-ए-गर्दूं है चराग़-ए-रहगुज़ार-ए-बाद याँ...
ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद वगरना हम तो तवक़्क़ो ज़्यादा रखते हैं तन-ए-ब-बंद-ए-हवस दर नदादा रखते हैं दिल-ए-ज़-कार-ए-जहाँ ऊफ़्तादा रखते हैं...
मस्ती ब-ज़ौक़-ए-ग़फ़लत-ए-साक़ी हलाक है मौज-ए-शराब यक-मिज़ा-ए-ख़्वाब-नाक है जुज़ ज़ख्म-ए-तेग़-ए-नाज़ नहीं दिल में आरज़ू जेब-ए-ख़याल भी तिरे हाथों से चाक है...
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा जाता हूँ दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती लिए हुए हूँ शम-ए-कुश्ता दर-ख़ुर-ए-महफ़िल नहीं रहा...
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है अपने जी में हम ने ठानी और है आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ सोज़-ए-ग़म-हा-ए-निहानी और है...
अफ़्सोस कि दंदाँ का किया रिज़्क़ फ़लक ने जिन लोगों की थी दर-ख़ुर-ए-अक़्द-ए-गुहर अंगुश्त काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना ख़ाली मुझे दिखला के ब-वक़्त-ए-सफ़र अंगुश्त...
शब कि वो मजलिस-फ़रोज़-ए-ख़ल्वत-ए-नामूस था रिश्ता-ए-हर-शम'अ ख़ार-ए-किस्वत-ए-फ़ानूस था मशहद-ए-आशिक़ से कोसों तक जो उगती है हिना किस क़दर या-रब हलाक-ए-हसरत-ए-पा-बोस था...
वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है तुम ने क्यूँ सौंपी है मेरे घर की दरबानी मुझे...
दिल मिरा सोज़-ए-निहाँ से बे-मुहाबा जल गया आतिश-ए-ख़ामोश की मानिंद गोया जल गया दिल में ज़ौक़-ए-वस्ल ओ याद-ए-यार तक बाक़ी नहीं आग इस घर में लगी ऐसी कि जो था जल गया...
हासिल से हाथ धो बैठ ऐ आरज़ू-ख़िरामी दिल जोश-ए-गिर्या में है डूबी हुई असामी उस शम्अ की तरह से जिस को कोई बुझा दे मैं भी जले-हुओं में हूँ दाग़-ए-ना-तमामी...
ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है हुए तुम दोस्त जिस के दुश्मन उस का आसमाँ क्यूँ हो...
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं याद थीं हम को भी रंगा-रंग बज़्म-आराईयाँ लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निस्याँ हो गईं...
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले...
जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की नमक-पाश-ए-ख़राश-ए-दिल है लज़्ज़त ज़िंदगानी की कशाकश-हा-ए-हस्ती से करे क्या सई-ए-आज़ादी हुई ज़ंजीर मौज-ए-आब को फ़ुर्सत रवानी की...
क्यूँ न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूँ न हो यानी उस बीमार को नज़्ज़ारे से परहेज़ है मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी वाए नाकामी कि उस काफ़िर का ख़ंजर तेज़ है...
शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उर्यां निकला ज़ख़्म ने दाद न दी तंगी-ए-दिल की या रब तीर भी सीना-ए-बिस्मिल से पर-अफ़्शाँ निकला...
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ...