क़रीब है यारो रोज़-ए-महशर छुपेगा कुश्तों का ख़ून क्यूँकर जो चुप रहेगी ज़बान-ए-ख़ंजर लहू पुकारेगा आस्तीं का...
गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...
जब से बाँधा है तसव्वुर उस रुख़-ए-पुर-नूर का सारे घर में नूर फैला है चराग़-ए-तूर का बख़्त-ए-वाज़ूँ से जले क्यूँ दिल न मुझ महरूर का मर्हम-ए-काफ़ूर से मुँह आ गया नासूर का...
ऐ ज़ब्त देख इश्क़ की उन को ख़बर न हो दिल में हज़ार दर्द उठे आँख तर न हो मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब दो-चार साल तक तो इलाही सहर न हो...
चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...
समझता हूँ सबब काफ़िर तिरे आँसू निकलने का धुआँ लगता है आँखों में किसी के दिल के जलने का...
मैं रो के आह करूँगा जहाँ रहे न रहे ज़मीं रहे न रहे आसमाँ रहे न रहे रहे वो जान-ए-जहाँ ये जहाँ रहे न रहे मकीं की ख़ैर हो या रब मकाँ रहे न रहे...
अमीर लाख इधर से उधर ज़माना हुआ वो बुत वफ़ा पे न आया मैं बे-वफ़ा न हुआ सर-ए-नियाज़ को तेरा ही आस्ताना हुआ शराब-ख़ाना हुआ या क़िमार-ख़ाना हुआ...
क्या रोके क़ज़ा के वार तावीज़ क़िल'अ है न कुछ हिसार तावीज़ चोटी में है मुश्क-बार तावीज़ या फ़ित्ना-ए-रोज़गार तावीज़...
पिला साक़िया अर्ग़वानी शराब कि पीरी में दे नौजवानी शराब वो शोला है साक़ी कि रंजक की तरह उड़ा देती है ना-तवानी शराब...