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कौन उठाएगा तुम्हारी ये जफ़ा मेरे बाद याद आएगी बहुत मेरी वफ़ा मेरे बाद...

ये भी इक बात है अदावत की रोज़ा रक्खा जो हम ने दावत की...

वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए...

हँस के फ़रमाते हैं वो देख के हालत मेरी क्यूँ तुम आसान समझते थे मोहब्बत मेरी...

तीर पर तीर लगाओ तुम्हें डर किस का है सीना किस का है मिरी जान जिगर किस का है...

छेड़ देखो मिरी मय्यत पे जो आए तो कहा तुम वफ़ादारों में हो या मैं वफ़ादारों में हूँ...

पुतलियाँ तक भी तो फिर जाती हैं देखो दम-ए-नज़अ वक़्त पड़ता है तो सब आँख चुरा जाते हैं...

तेरी मस्जिद में वाइज़ ख़ास हैं औक़ात रहमत के हमारे मय-कदे में रात दिन रहमत बरसती है...

आया न एक बार अयादत को तू मसीह सौ बार मैं फ़रेब से बीमार हो चुका...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया उधर रक्खा...

अल्लाह-री नज़ाकत-ए-जानाँ कि शेर में मज़मूँ बंधा कमर का तो दर्द-ए-कमर हुआ...

क़रीब है यारो रोज़-ए-महशर छुपेगा कुश्तों का ख़ून क्यूँकर जो चुप रहेगी ज़बान-ए-ख़ंजर लहू पुकारेगा आस्तीं का...

कबाब-ए-सीख़ हैं हम करवटें हर-सू बदलते हैं जल उठता है जो ये पहलू तो वो पहलू बदलते हैं...

मिसी छूटी हुई सूखे हुए होंट ये सूरत और आप आते हैं घर से...

पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया बे-कार है जो दाँत दहन से निकल गया...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

आफ़त तो है वो नाज़ भी अंदाज़ भी लेकिन मरता हूँ मैं जिस पर वो अदा और ही कुछ है...

बाद मरने के भी छोड़ी न रिफ़ाक़त मेरी मेरी तुर्बत से लगी बैठी है हसरत मेरी...

शाख़ों से बर्ग-ए-गुल नहीं झड़ते हैं बाग़ में ज़ेवर उतर रहा है उरूस-ए-बहार का...

सारी दुनिया के हैं वो मेरे सिवा मैं ने दुनिया छोड़ दी जिन के लिए...

शाएर को मस्त करती है तारीफ़-ए-शेर 'अमीर' सौ बोतलों का नश्शा है इस वाह वाह में...

काबा-ए-रुख़ की तरफ़ पढ़नी है आँखों से नमाज़ चाहिए गर्द-ए-नज़र बहर-ए-तयम्मुम मुझ को...

है वसिय्यत कि कफ़न मुझ को इसी का देना हाथ आ जाए जो उतरा हुआ पैराहन-ए-दोस्त...

फिर बैठे बैठे वादा-ए-वस्ल उस ने कर लिया फिर उठ खड़ा हुआ वही रोग इंतिज़ार का...

जब से बाँधा है तसव्वुर उस रुख़-ए-पुर-नूर का सारे घर में नूर फैला है चराग़-ए-तूर का बख़्त-ए-वाज़ूँ से जले क्यूँ दिल न मुझ महरूर का मर्हम-ए-काफ़ूर से मुँह आ गया नासूर का...

ऐ ज़ब्त देख इश्क़ की उन को ख़बर न हो दिल में हज़ार दर्द उठे आँख तर न हो मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब दो-चार साल तक तो इलाही सहर न हो...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...

समझता हूँ सबब काफ़िर तिरे आँसू निकलने का धुआँ लगता है आँखों में किसी के दिल के जलने का...

बातें नासेह की सुनीं यार के नज़्ज़ारे किए आँखें जन्नत में रहीं कान जहन्नम में रहे...

मैं रो के आह करूँगा जहाँ रहे न रहे ज़मीं रहे न रहे आसमाँ रहे न रहे रहे वो जान-ए-जहाँ ये जहाँ रहे न रहे मकीं की ख़ैर हो या रब मकाँ रहे न रहे...

बाक़ी न दिल में कोई भी या रब हवस रहे चौदह बरस के सिन में वो लाखों बरस रहे...

मस्जिद में बुलाते हैं हमें ज़ाहिद-ए-ना-फ़हम होता कुछ अगर होश तो मय-ख़ाने न जाते...

है जवानी ख़ुद जवानी का सिंगार सादगी गहना है इस सिन के लिए...

अमीर लाख इधर से उधर ज़माना हुआ वो बुत वफ़ा पे न आया मैं बे-वफ़ा न हुआ सर-ए-नियाज़ को तेरा ही आस्ताना हुआ शराब-ख़ाना हुआ या क़िमार-ख़ाना हुआ...

ख़्वाब में आँखें जो तलवों से मलीं बोले उफ़ उफ़ पाँव मेरा छिल गया...

न वाइज़ हज्व कर एक दिन दुनिया से जाना है अरे मुँह साक़ी-ए-कौसर को भी आख़िर दिखाना है...

हुए नामवर बे-निशाँ कैसे कैसे ज़मीं खा गई आसमाँ कैसे कैसे...

तवक़्क़ो' है धोके में आ कर वह पढ़ लें कि लिक्खा है नामा उन्हें ख़त बदल कर...

क्या रोके क़ज़ा के वार तावीज़ क़िल'अ है न कुछ हिसार तावीज़ चोटी में है मुश्क-बार तावीज़ या फ़ित्ना-ए-रोज़गार तावीज़...

पिला साक़िया अर्ग़वानी शराब कि पीरी में दे नौजवानी शराब वो शोला है साक़ी कि रंजक की तरह उड़ा देती है ना-तवानी शराब...