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माँ कब से खड़ी पुकार रही पुत्रो निज कर में शस्त्र गहो सेनापति की आवाज़ हुई तैयार रहो, तैयार रहो...

कितनी बार तुम्हें देखा पर आंखें नहीं भरीं सीमित उर में चिर असीम सौन्दर्य समा न सका बीन मुग्ध बेसुथ कुरंग...

हाथ हैं दोनों सधे-से गीत प्राणों के रूँधे-से और उसकी मूठ में, विश्वास जीवन के बँधे-से...

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार। आज सिन्धु ने विष उगला है लहरों का यौवन मचला है आज ह्रदय में और सिन्धु में...

तुम जो जीवित कहलाने के हो आदी तुम जिसको दफ़ना नहीं सकी बरबादी तुम जिनकी धड़कन में गति का वन्दन है तुम जिसकी कसकन में चिर संवेदन है...

यह हार एक विराम है जीवन महासंग्राम है तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं। वरदान माँगूँगा नहीं॥...

घर-आंगन में आग लग रही। सुलग रहे वन -उपवन, दर दीवारें चटख रही हैं जलते छप्पर- छाजन।...

मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ, पर तुम्हें भूला नहीं हूँ। चल रहा हूँ, क्योंकि चलने से थकावट दूर होती, जल रहा हूँ क्योंकि जलने से तमिस्त्रा चूर होती, गल रहा हूँ क्योंकि हल्का बोझ हो जाता हृदय का,...

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार आज सिन्धु ने विष उगला है लहरों का यौवन मचला है आज हृदय में और सिन्धु में...

कितनी बार तुम्हें देखा पर आँखें नहीं भरीं। सीमित उर में चिर-असीम सौंदर्य समा न सका ...

इस जीवन में बैठे ठाले ऐसे भी क्षण आ जाते हैं जब हम अपने से ही अपनी बीती कहने लग जाते हैं। तन खोया-खोया-सा लगता मन उर्वर-सा हो जाता है कुछ खोया-सा मिल जाता है कुछ मिला हुआ खो जाता है।...

जन्मा उन्नाव में मालवा में जा बसा लखनऊ लौटा तो नए नखत टँके दिखे...

जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला उस उस राही को धन्यवाद। जीवन अस्थिर अनजाने ही हो जाता पथ पर मेल कहीं...

बहुत दिनों में आज मिली है साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम। पेड खडे फैलाए बाँहें लौट रहे घर को चरवाहे...

जीवन का नया दौर शुरू हुआ बची-खुची साँसों को जीने की बेचैनी ख़ूब ग्रह हैं मेरे भी एक दिन काशी छोड़...

मैं राजदरबार से चला आया अपनी ही नज़रों में गिरने से बच गया।...

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के पिंजरबद्ध न गा पाएँगे, कनक-तीलियों से टकराकर पुलकित पंख टूट जाऍंगे।...

मैं नहीं जाता किसी के द्वार बिना मनुहार अथवा समय की पुकार के...

जीवन में कितना सूनापन पथ निर्जन है, एकाकी है, उर में मिटने का आयोजन सामने प्रलय की झाँकी है...

तुम तो यहीं ठहर गये ठहरे तो किले बान्धो मीनारें गढ़ो उतरो चढ़ो...

आज मैंने सुई में डोरा डाल लिया उतनी ही बड़ी सिद्धि जितनी जग जाती एक कविता लिख लेने में।...

करता विवश उमड़ी घटा को देखकर चूमूँ लहराते केश को पी लूँ तपन, सीझूँ सपन...

कीचड़-कालिख से सने हाथ इनको चूमो सौ कामिनियों के लोल कपोलों से बढ़कर जिसने चूमा दुनिया को अन्न खिलाया है...

इतने पलाश क्यों फूट पड़े है एक साथ इनको समेटने को इतने आँचल भी तो चाहिए, ऐसी कतार लौ की दिन-रात जलेगी जो किस-किस की पुतली से क्या-क्या कहिए।...

मृत्तिका का दीप तब तक जलेगा अनिमेष एक भी कण स्नेह का जब तक रहेगा शेष। हाय जी भर देख लेने दो मुझे मत आँख मीचो...

हम दीवानों का क्या परिचय? कुछ चाव लिए, कुछ चाह लिए कुछ कसकन और कराह लिए कुछ दर्द लिए, कुछ दाह लिए...

मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार पथ ही मुड़ गया था। गति मिली, मैं चल पड़ा, पथ पर कहीं रुकना मना था...

गति प्रबल पैरों में भरी फिर क्यों रहूं दर दर खडा जब आज मेरे सामने है रास्ता इतना पडा ...

मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार पथ ही मुड़ गया था। गति मिली मैं चल पड़ा पथ पर कहीं रुकना मना था,...

मैं अकेला और पानी बरसता है प्रीती पनिहारिन गई लूटी कहीं है, गगन की गगरी भरी फूटी कहीं है, एक हफ्ते से झड़ी टूटी नहीं है,...

निर्मम कुम्हार की थापी से कितने रूपों में कुटी-पिटी, हर बार बिखेरी गई, किंतु मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी!...