पर आँखें नहीं भरीं
कितनी बार तुम्हें देखा पर आँखें नहीं भरीं। सीमित उर में चिर-असीम सौंदर्य समा न सका बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग मन रोके नहीं रुका यों तो कई बार पी-पीकर जी भर गया छका एक बूँद थी, किंतु, कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी। कितनी बार तुम्हें देखा पर आँखें नहीं भरीं। शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी कण-कण में बिखरी मिलन साँझ की लाज सुनहरी ऊषा बन निखरी, हाय, गूँथने के ही क्रम में कलिका खिली, झरी भर-भर हारी, किंतु रह गई रीती ही गगरी। कितनी बार तुम्हें देखा पर आँखें नहीं भरीं।

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