मैं अकेला और पानी बरसता है
मैं अकेला और पानी बरसता है प्रीती पनिहारिन गई लूटी कहीं है, गगन की गगरी भरी फूटी कहीं है, एक हफ्ते से झड़ी टूटी नहीं है, संगिनी फिर यक्ष की छूटी कहीं है, फिर किसी अलकापुरी के शून्य नभ में कामनाओं का अँधेरा सिहरता है। मोर काम-विभोर गाने लगा गाना, विधुर झिल्ली ने नया छेड़ा तराना, निर्झरों की केलि का भी क्या ठिकाना, सरि-सरोवर में उमंगों का उठाना, मुखर हरियाली धरा पर छा गई जो यह तुम्हारे ही हृदय की सरसता है। हरहराते पात तन का थरथराना, रिमझिमाती रात मन का गुनगुनाना, क्या बनाऊँ मैं भला तुमसे बहाना, भेद पी की कामना का आज जाना, क्यों युगों से प्यास का उल्लास साधे भरे भादों में पपीहा तरसता है। मैं अकेला और पानी बरसता है।

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