सहर जो निकला मैं अपने घर से तो देखा इक शोख़ हुस्न वाला झलक वो मुखड़े में उस सनम के कि जैसे सूरज में हो उजाला वो ज़ुल्फ़ें उस की सियाह पुर-ख़म कि उन के बल और शिकन को यारो न पहुँचे सुम्बुल न पहुँचे रैहाँ न पहुँचे नागिन न पहुँचे काला...
क्या कासा-ए-मय लीजिए इस बज़्म में ऐ हम-नशीं दौर-ए-फ़लक से क्या ख़बर पहुँचेगा लब तक या नहीं ये कासा-ए-फ़ीरोज़गूँ है शीशा-बाज़-ए-पुर-फ़ुनूँ जितने हियल हैं और फ़ुसूँ सब उस के हैं ज़ेर-ए-नगीं...
मुंतज़िर उस के दिला ता-ब-कुजा बैठना शाम हुई अब चलो सुब्ह फिर आ बैठना होश रहा ने क़रार दीन रहा और न दिल रहा पास बुतों के हमें ख़ूब न था बैठना...
जब उस की ज़ुल्फ़ के हल्क़े में हम असीर हुए शिकन के आदी हुए ख़म के ख़ू-पज़ीर हुए ख़दंग-वार जो ग़म्ज़े थे उस के छुटपन में पर अब नज़र में जो आए तो रश्क-ए-तीर हुए...
हैं दम के साथ इशरत ओ उसरत हज़ार-हा वाबस्ता एक तार-ए-नफ़स से हैं तार-हा कुछ सैद-ज़ख़्म-ख़ुर्दा-ए-जानाँ हमीं नहीं हर सैद-गह में उस की हैं बिस्मिल शिकार-हा...
कहते हैं जिस को 'नज़ीर' सुनिए टुक उस का बयाँ था वो मोअल्लिम ग़रीब बुज़दिल ओ तरसंदा-जाँ कोई किताब इस के तईं साफ़ न थी दर्स की आए तो मअनी कहे वर्ना पढ़ाई रवाँ...
दिल ठहरा एक तबस्सुम पर कुछ और बहा ऐ जान नहीं गर हँस दीजे और ले लीजे तो फ़ाएदा है नुक़सान नहीं ये नाज़ है या इस्तिग़्ना है या तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है यारो जो लाख कोई तड़पे सिसके फ़रियाद करे कुछ ध्यान नहीं...
कहा जो ''हम ने हमें दर से क्यूँ उठाते हो'' कहा कि ''इस लिए तुम याँ जो ग़ुल मचाते हो'' कहा ''लड़ाते हो क्यूँ हम से ग़ैर को हमदम'' कहा कि ''तुम भी तो हम से निगह लड़ाते हो''...
ईसा की क़ुम से हुक्म नहीं कम फ़क़ीर का अरिनी पुकारता है सदा दम फ़क़ीर का ख़ूबी भरी है जिस में दो-आलम की कोट कोट अल्लाह ने किया है वो आलम फ़क़ीर का...
ऐ मिरी जान हमेशा हो तिरी जान की ख़ैर नाज़ुकी दौर-ए-बला, हुस्न के सामान की ख़ैर रात दिन शाम सहर पहर घड़ी पल साअत माँगते जाती है हम को तिरी आन आन की ख़ैर...
खींच कर इस माह-रू को आज याँ लाई है रात ये ख़ुदा ने मुद्दतों में हम को दिखलाई है रात चाँदनी है रात है ख़ल्वत है सेहन-ए-बाग़ है जाम भर साक़ी कि ये क़िस्मत से हाथ आई है रात...
तेरे भी मुँह की रौशनी रात गई थी मह से मिल ताब से ताब रुख़ से रुख़ नूर से नूर ज़िल से ज़िल यूसुफ़-ए-मिस्र से मगर मिलते हैं सब तिरे निशाँ ज़ुल्फ़ से ज़ुल्फ़ लब से लब चश्म से चश्म तिल से तिल...
तुम्हारे हिज्र में आँखें हमारी मुद्दत से नहीं ये जानतीं दुनिया में ख़्वाब है क्या चीज़...
कहने उस शोख़ से दिल का जो मैं अहवाल गया वाँ न तफ़्सील गई पेश न इज्माल गया दाम-ए-काकुल से गिला क्या ये जो है ताइर-ए-दिल आप अपने ये फँसाने को पर-ओ-बाल गया...
न मैं दिल को अब हर मकाँ बेचता हूँ कोई ख़ूब-रू ले तो हाँ बेचता हूँ वो मय जिस को सब बेचते हैं छुपा कर मैं उस मय को यारो अयाँ बेचता हूँ...
हम अश्क-ए-ग़म हैं अगर थम रहे रहे न रहे मिज़ा पे आन के टुक जम रहे रहे न रहे रहें वो शख़्स जो बज़्म-ए-जहाँ की रौनक़ हैं हमारी क्या है अगर हम रहे रहे न रहे...
रक्खी हरगिज़ न तिरे रख ने रुख़-ए-बदर की क़द्र खोई काकुल ने भी आख़िर को शब-ए-क़द्र की क़द्र इज़्ज़त-ओ-क़द्र की उस गुल से तवक़्क़ो है अबस वाँ न इज़्ज़त की कुछ इज़्ज़त है न कुछ क़द्र की क़द्र...
चलते चलते न ख़लिश कर फ़लक-ए-दूँ से 'नज़ीर' फ़ाएदा क्या है कमीने से झगड़ कर चलना...
आन रखता है अजब यार का लड़ कर चलना हर क़दम नाज़ के ग़ुस्से में अकड़ कर चलना जितने बन बन के निकलते हैं सनम नाम-ए-ख़ुदा सब में भाता है मुझे उस का बिगड़ कर चलना...
मय पी के जो गिरता है तो लेते हैं उसे थाम नज़रों से गिरा जो उसे फिर किस ने सँभाला...
बैठो याँ भी कोई पल क्या होगा हम भी आशिक़ हैं ख़लल क्या होगा दिल ही हो सकता है और इस के बग़ैर जान-ए-मन दिल का बदल क्या होगा...
लेता है जान मेरी तो में सर-ब-दस्त हूँ ऐ यार मैं तो कुश्ता-ए-रोज़-ए-अलस्त हूँ इक दम की ज़िंदगी के लिए मत उठा मुझे ऐ बे-ख़बर मैं नक़्श-ए-ज़मीं की निशस्त हूँ...
सुनो मैं ख़ूँ को अपने साथ ले आया हूँ और बाक़ी चले आते हैं उठते बैठते लख़्त-ए-जिगर पीछे...
न सुर्ख़ी ग़ुंचा-ए-गुल में तिरे दहन की सी न यासमन में सफ़ाई तिरे बदन की सी मैं क्यूँ न फूलूँ कि उस गुल-बदन के आने से बहार आज मिरे घर में है चमन की सी...
उस के शरार-ए-हुस्न ने शोअ'ला जो इक दिखा दिया तूर को सर से पाँव तक फूँक दिया जला दिया फिर के निगाह चार सू ठहरी उसी के रू-ब-रू उस ने तो मेरी चश्म को क़िबला-नुमा बना दिया...
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है...
क्या नाम-ए-ख़ुदा अपनी भी रुस्वाई है कम-बख़्त रुस्वाइ-ए-मजनूँ भी तमाशाई है कम-बख़्त लड़ने को लड़े उस से पर अब करते हैं अफ़सोस अफ़सोस अजब अपनी भी दानाई है कम-बख़्त...
साक़ी शराब है तो ग़नीमत है अब की अब फिर बज़्म होगी जब तो समझ लीजो जब की जब साग़र के लब से पोछिए उस लब की लज़्ज़तें किस वास्ते कि ख़ूब समझता है लब की लब...
जुदा किसी से किसी का ग़रज़ हबीब न हो ये दाग़ वो है कि दुश्मन को भी नसीब न हो जुदा जो हम को करे उस सनम के कूचे से इलाही राह में ऐसा कोई रक़ीब न हो...
खोली जो टुक ऐ हम-नशीं उस दिल-रुबा की ज़ुल्फ़ कल क्या क्या जताए ख़म के ख़म क्या क्या दिखाए बल के बल आता जो बाहर घर से वो होती हमें क्या क्या ख़ुशी गर देख लेते हम उसे फिर एक दम या एक पल...
जब उस के ही मिलने से नाकाम आया तो या-रब ये दिल मेरा किस काम आया कभी उस तग़ाफ़ुल-मनुश की तरफ़ से न क़ासिद न नामा न पैग़ाम आया...