रक्खी हरगिज़ न तिरे रख ने रुख़-ए-बदर की क़द्र
रक्खी हरगिज़ न तिरे रख ने रुख़-ए-बदर की क़द्र खोई काकुल ने भी आख़िर को शब-ए-क़द्र की क़द्र इज़्ज़त-ओ-क़द्र की उस गुल से तवक़्क़ो है अबस वाँ न इज़्ज़त की कुछ इज़्ज़त है न कुछ क़द्र की क़द्र रास्ती ख़्वार है उस चश्म-ए-फ़ुसूँ-परवर से हाँ मगर मंज़िलत-ए-मक्र है और उज़्र की क़द्र मय-परस्तों में है यूँ साग़र-ओ-मीना का वक़ार जैसे इस्लाम में हो मोहतसिब ओ सद्र की क़द्र कफ़्श-बरदारी से उस महर की चमका है 'नज़ीर' वर्ना क्या ख़ाक थी इस ज़र्रा-ए-बे-क़द्र की क़द्र

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