महशर में पास क्यूँ दम-ए-फ़रियाद आ गया रहम उस ने कब किया था कि अब याद आ गया उलझा है पाँव यार का ज़ुल्फ़-ए-दराज़ में लो आप अपने दाम में सय्याद आ गया...
दिल-बस्तगी सी है किसी ज़ुल्फ़-ए-दोता के साथ पाला पड़ा है हम को ख़ुदा किस बला के साथ कब तक निभाइए बुत-ए-ना-आश्ना के साथ कीजे वफ़ा कहाँ तलक उस बेवफ़ा के साथ...
वो कहाँ साथ सुलाते हैं मुझे ख़्वाब क्या क्या नज़र आते हैं मुझे उस परी-वश से लगाते हैं मुझे लोग दीवाना बनाते हैं मुझे...
न इंतिज़ार में याँ आँख एक आँ लगी न हाए हाए में तालू से शब ज़बाँ लगी जला जिगर तब ग़म से फड़कने जाँ लगी इलाही ख़ैर कि अब आग पास आँ लगी...
राज़-ए-निहाँ ज़बान-ए-अग़्यार तक न पहुँचा क्या एक भी हमारा ख़त यार तक न पहुँचा अल्लाह रे ना-तवानी जब शिद्दत-ए-क़लक़ में बालीं से सर उठाया दीवार तक न पहुँचा...
हम-रंग लाग़री से हूँ गुल की शमीम का तूफ़ान-ए-बाद है मुझे झोंका नसीम का छोड़ा न कुछ भी सीने में तुग़्यान-ए-अश्क ने अपनी ही फ़ौज हो गई लश्कर ग़नीम का...
उल्टे वो शिकवे करते हैं और किस अदा के साथ बे-ताक़ती के ताने हैं उज़्र-ए-जफ़ा के साथ बहर-अयादत आए वो लेकिन क़ज़ा के साथ दम ही निकल गया मिरा आवाज़-ए-पा के साथ...
डर तो मुझे किस का है कि मैं कुछ नहीं कहता पर हाल ये इफ़शा है कि मैं कुछ नहीं कहता नासेह ये गिला क्या है कि मैं कुछ नहीं कहता तू कब मिरी सुनता है कि मैं कुछ नहीं कहता...
अदम में रहते तो शाद रहते उसे भी फ़िक्र-ए-सितम न होता जो हम न होते तो दिल न होता जो दिल न होता तो ग़म न होता हुई ख़जालत से नफ़रत अफ़्ज़ूँ गिले किए ख़ूब आख़िरीं दम वो काश इक दम ठहर के आते कि मेरे लब पर भी दम न होता...
इस वुसअत-ए-कलाम से जी तंग आ गया नासेह तू मेरी जान न ले दिल गया गया ज़िद से वो फिर रक़ीब के घर में चला गया ऐ रश्क मेरी जान गई तेरा क्या गया...
तासीर सब्र में न असर इज़्तिराब में बेचारगी से जान पड़ी किस अज़ाब में बे-नाला मुँह से झड़ते हैं बे-गिर्या आँख से अजज़ा-ए-दिल का हाल न पूछ इज़्तिराब में...
हो न बेताब अदा तुम्हारी आज नाज़ करती है बे-क़रारी आज उड़ गया ख़ाक पर ग़ुबार अपना हो गई ख़ाक ख़ाकसारी आज...
जलता हूँ हिज्र-ए-शाहिद ओ याद-ए-शराब में शौक़-ए-सवाब ने मुझे डाला अज़ाब में कहते हैं तुम को होश नहीं इज़्तिराब में सारे गिले तमाम हुए इक जवाब में...
रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह अटका कहीं जो आप का दिल भी मिरी तरह आता नहीं है वो तो किसी ढब से दाओ में बनती नहीं है मिलने की उस के कोई तरह...
ग़ैरों पे खुल न जाए कहीं राज़ देखना मेरी तरफ़ भी ग़म्ज़ा-ए-ग़म्माज़ देखना उड़ते ही रंग-ए-रुख़ मिरा नज़रों से था निहाँ इस मुर्ग़-ए-पर-शिकस्ता की परवाज़ देखना...
वादा-ए-वस्लत से दिल हो शाद क्या तुम से दुश्मन की मुबारकबाद क्या कुछ क़फ़स में इन दिनों लगता है जी आशियाँ अपना हुआ बर्बाद क्या...
शब तुम जो बज़्म-ए-ग़ैर में आँखें चुरा गए खोए गए हम ऐसे कि अग़्यार पा गए पूछा किसी पे मरते हो और दम निकल गया हम जान से इनाँ-ब-इनान सदा गए...
वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो वही यानी वअ'दा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे पेश-तर वो करम कि था मिरे हाल पर मुझे सब है याद ज़रा ज़रा तुम्हें याद हो कि न याद हो...
क़हर है मौत है क़ज़ा है इश्क़ सच तो यूँ है बुरी बला है इश्क़ असर-ए-ग़म ज़रा बता देना वो बहुत पूछते हैं क्या है इश्क़...
असर उस को ज़रा नहीं होता रंज राहत-फ़ज़ा नहीं होता बेवफ़ा कहने की शिकायत है तो भी वादा-वफ़ा नहीं होता...
वादे की जो साअत दम-ए-कुश्तन है हमारा जो दोस्त हमारा है सो दुश्मन है हमारा ये काह-ए-रुबा से भी हैं कम ऐ कशिश-ए-दिल मज़कूर कुछ ऐसा पस-ए-चिलमन है हमारा...