राज़-ए-निहाँ ज़बान-ए-अग़्यार तक न पहुँचा
राज़-ए-निहाँ ज़बान-ए-अग़्यार तक न पहुँचा क्या एक भी हमारा ख़त यार तक न पहुँचा अल्लाह रे ना-तवानी जब शिद्दत-ए-क़लक़ में बालीं से सर उठाया दीवार तक न पहुँचा रोते तो रहम आता सो उस के रू-ब-रू तो इक क़तरा ख़ूँ भी चश्म-ए-ख़ूँ-बार तक न पहुँचा आशिक़ से मत बयाँ कर क़त्ल-ए-अदू का मुज़्दा पैग़ाम-ए-मर्ग है ये बीमार तक न पहुँचा बे-बख़्त रंग-ए-ख़ूबी किस काम का कि मैं तो था गुलवले किसी की दस्तार तक न पहुँचा मुफ़्त अव्वल-ए-सुख़न में आशिक़ ने जान दे दी क़ासिद बयान तेरा इक़रार तक न पहुँचा थी ख़ार राह तेरी मिज़्गाँ की याद फिर शब ता-सुब्ह ख़्वाब चश्म-ए-बेदार तक न पहुँचा बख़्त-ए-रसा अदू के जो चाहे सो कहे अब यक बार यार मुझ तक मैं यार तक न पहुँचा ग़ैरों से उस ने हरगिज़ छोड़ी न हाथा-पाई जब तक अजल का सदमा दो-चार तक न पहुँचा 'मोमिन' उसी ने मुझ से दी बरतरी किसी को जो पस्त-फ़हम मेरे अशआर तक न पहुँचा

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