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ताब-ए-नज़्ज़ारा नहीं आइना क्या देखने दूँ और बन जाएँगे तस्वीर जो हैराँ होंगे...

दफ़्न जब ख़ाक में हम सोख़्ता-सामाँ होंगे फ़िल्स माही के गुल-ए-शम-ए-शबिस्ताँ होंगे नावक-अंदाज़ जिधर दीदा-ए-जानाँ होंगे नीम-बिस्मिल कई होंगे कई बे-जाँ होंगे...

दिल क़ाबिल-ए-मोहब्बत-ए-जानाँ नहीं रहा वो वलवला वो जोश वो तुग़्याँ नहीं रहा ठंडा है गर्म-जोशी-ए-अफ़्सुर्दगी से जी कैसा असर कि नाला ओ अफ़्ग़ाँ नहीं रहा...

है कुछ तो बात 'मोमिन' जो छा गई ख़मोशी किस बुत को दे दिया दिल क्यूँ बुत से बन गए हो...

ये उज़्र-ए-इम्तिहान-ए-जज़्ब-ए-दिल कैसा निकल आया मैं इल्ज़ाम उस को देता था क़ुसूर अपना निकल आया न शादी-ए-मर्ग हूँ क्यूँकर है मुज़्दा क़त्ल-ए-दुश्मन का कि घर में से लिए शमशीर वो रोता निकल आया...

मैं अगर आप से जाऊँ तो क़रार आ जाए पर ये डरता हूँ कि ऐसा न हो यार आ जाए बाँधो अब चारागरो चिल्ले कि वो भी शायद वस्ल-ए-दुश्मन के लिए सू-ए-मज़ार आ जाए...

धो दिया अश्क-ए-नदामत ने गुनाहों को मिरे तर हुआ दामन तो बारे पाक दामन हो गया...

अगर ग़फ़लत से बाज़ आया जफ़ा की तलाफ़ी की भी ज़ालिम ने तो क्या की मरे आग़ाज़-ए-उल्फ़त में हम अफ़्सोस उसे भी रह गई हसरत जफ़ा की...

ग़ैरों पे खुल न जाए कहीं राज़ देखना मेरी तरफ़ भी ग़म्ज़ा-ए-ग़म्माज़ देखना...

सौदा था बला-ए-जोश पर रात बिस्तर पर बिछाए नश्तर रात बिगड़े थे यहाँ वो आन कर रात बे-तौर बनी थी जान पर रात...

हो गए नाम-ए-बुताँ सुनते ही 'मोमिन' बे-क़रार हम न कहते थे कि हज़रत पारसा कहने को हैं...

ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम पर क्या करें कि हो गए नाचार जी से हम हँसते जो देखते हैं किसी को किसी से हम मुँह देख देख रोते हैं किस बेकसी से हम...

चल दिए सू-ए-हरम कू-ए-बुताँ से 'मोमिन' जब दिया रंज बुतों ने तो ख़ुदा याद आया...

माशूक़ से भी हम ने निभाई बराबरी वाँ लुत्फ़ कम हुआ तो यहाँ प्यार कम हुआ...

उस ग़ैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक शोला सा लपक जाए है आवाज़ तो देखो...

बहर-अयादत आए वो लेकिन क़ज़ा के साथ दम ही निकल गया मिरा आवाज़-ए-पा के साथ...

'मोमिन' ख़ुदा के वास्ते ऐसा मकाँ न छोड़ दोज़ख़ में डाल ख़ुल्द को कू-ए-बुताँ न छोड़ आशिक़ तो जानते हैं वो ऐ दिल यही सही हर-चंद बे-असर है पर आह ओ फ़ुग़ाँ न छोड़...

एजाज़-ए-जाँ-दही है हमारे कलाम को ज़िंदा किया है हम ने मसीहा के नाम को लिक्खो सलाम ग़ैर के ख़त में ग़ुलाम को बंदे का बस सलाम है ऐसे सलाम को...

तुम हमारे किसी तरह न हुए वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता...

एजाज़-ए-जाँ-दही है हमारे कलाम को ज़िंदा किया है हम ने मसीहा के नाम को...

जूँ निकहत-ए-गुल जुम्बिश है जी का निकल जाना ऐ बाद-ए-सबा मेरी करवट तो बदल जाना पा-लग़्ज़-ए-मोहब्बत से मुश्किल है सँभल जाना उस रुख़ की सफ़ाई पर इस दिल का बहल जाना...

'मोमिन' ख़ुदा के वास्ते ऐसा मकाँ न छोड़ दोज़ख़ में डाल ख़ुल्द को कू-ए-बुताँ न छोड़...

मज्लिस में मिरे ज़िक्र के आते ही उठे वह बदनामी-ए-उश्शाक़ का एज़ाज़ तो देखो...

ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम पर क्या करें कि हो गए नाचार जी से हम...

उस नक़्श-ए-पा के सज्दे ने क्या क्या किया ज़लील मैं कूचा-ए-रक़ीब में भी सर के बल गया...

उलझा है पाँव यार का ज़ुल्फ़-ए-दराज़ में लो आप अपने दाम में सय्याद आ गया...

ग़ुस्सा बेगाना-वार होना था बस यही तुझ से यार होना था क्या शब-ए-इंतिज़ार होना था नाहक़ उम्मीद-वार होना था...

नासेहा दिल में तो इतना तू समझ अपने कि हम लाख नादान सही तुझ से भी नादाँ होंगे...

वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो...

मैं भी कुछ ख़ुश नहीं वफ़ा कर के तुम ने अच्छा किया निबाह न की...

हँस हँस के वो मुझ से ही मिरे क़त्ल की बातें इस तरह से करते हैं कि गोया न करेंगे...

थी वस्ल में भी फ़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब वो आए तो भी नींद न आई तमाम शब...

हो गया राज़-ए-इश्क़ बे-पर्दा उस ने पर्दे से जो निकाला मुँह...

जो तेरे मुँह से न हो शर्मसार आईना तो रुख़ करे सू-ए-आईना वार आईना कहे है देख के रुख़्सार-ए-यार आईना कि इस सफ़ाई पे सदक़े निसार आईना...

ता न पड़े ख़लल कहीं आप के ख़्वाब-ए-नाज़ में हम नहीं चाहते कमी अपनी शब-ए-दराज़ में और ही रंग आज है आरिज़-ए-गुल-अज़ार का ख़ून-ए-दिल अपना था मगर गो न रुख़-ए-तराज़ में...

करता है क़त्ल-ए-आम वो अग़्यार के लिए दस बीस रोज़ मरते हैं दो-चार के लिए देखा अज़ाब-ए-रंज दिल-ए-ज़ार के लिए आशिक़ हुए हैं वो मिरे आज़ार के लिए...

है किस का इंतिज़ार कि ख़्वाब-ए-अदम से भी हर बार चौंक पड़ते हैं आवाज़-ए-पा के साथ...

चल परे हट मुझे न दिखला मुँह ऐ शब-ए-हिज्र तेरा काला मुँह आरज़ू-ए-नज़्ज़ारा थी तू ने इतनी ही बात पर छुपाया मुँह...

आँखों से हया टपके है अंदाज़ तो देखो है बुल-हवसों पर भी सितम नाज़ तो देखो उस बुत के लिए मैं हवस-ए-हूर से गुज़रा इस इश्क़-ए-ख़ुश-अंजाम का आग़ाज़ तो देखो...

आप की कौन सी बढ़ी इज़्ज़त मैं अगर बज़्म में ज़लील हुआ...