ने मोहरा बाक़ी ने मोहरा-बाज़ी जीता है 'रूमी' हारा है 'राज़ी' रौशन है जाम-ए-जमशेद अब तक शाही नहीं है ब-शीशा-बाज़ी...
फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह ओ दमन मुझ को फिर नग़्मों पे उकसाने लगा मुर्ग़-ए-चमन फूल हैं सहरा में या परियाँ क़तार अंदर क़तार ऊदे ऊदे नीले नीले पीले पीले पैरहन...
ये हूरयान-ए-फ़रंगी दिल ओ नज़र का हिजाब बहिश्त-ए-मग़रबियाँ जल्वा-हा-ए-पा-ब-रिकाब दिल ओ नज़र का सफ़ीना संभाल कर ले जा मह ओ सितारा हैं बहर-ए-वजूद में गिर्दाब...
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में तरब-आशना-ए-ख़रोश हो तो नवा है महरम-ए-गोश हो वो सरोद क्या कि छुपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में...
क्यूँ ज़याँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ नाले बुलबुल के सुनूँ और हमा-तन गोश रहूँ हम-नवा मैं भी कोई गुल हूँ कि ख़ामोश रहूँ...
ख़िर्द-मंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा क्या है ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है...
अगर हंगामा-हा-ए-शौक़ से है ला-मकाँ ख़ाली ख़ता किस की है या रब ला-मकाँ तेरा है या मेरा...
कहते हैं कभी गोश्त न खाता था म'अर्री फल-फूल पे करता था हमेशा गुज़र-औक़ात इक दोस्त ने भूना हुआ तीतर उसे भेजा शायद कि वो शातिर इसी तरकीब से हो मात...
ला फिर इक बार वही बादा ओ जाम ऐ साक़ी हाथ आ जाए मुझे मेरा मक़ाम ऐ साक़ी तीन सौ साल से हैं हिन्द के मय-ख़ाने बंद अब मुनासिब है तिरा फ़ैज़ हो आम ऐ साक़ी...
जो मैं सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा तिरा दिल तो है सनम-आश्ना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में...
ज़मिस्तानी हवा में गरचे थी शमशीर की तेज़ी न छूटे मुझ से लंदन में भी आदाब-ए-सहर-ख़ेज़ी कहीं सरमाया-ए-महफ़िल थी मेरी गर्म-गुफ़्तारी कहीं सब को परेशाँ कर गई मेरी कम-आमेज़ी...
अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा था मैं आब ओ गिल के खेल को अपना जहाँ समझा था मैं बे-हिजाबी से तिरी टूटा निगाहों का तिलिस्म इक रिदा-ए-नील-गूँ को आसमाँ समझा था मैं...
महीने वस्ल के घड़ियों की सूरत उड़ते जाते हैं मगर घड़ियाँ जुदाई की गुज़रती हैं महीनों में...
मुसलमाँ के लहू में है सलीक़ा दिल-नवाज़ी का मुरव्वत हुस्न-ए-आलम-गीर है मर्दान-ए-ग़ाज़ी का शिकायत है मुझे या रब ख़ुदावंदान-ए-मकतब से सबक़ शाहीं बच्चों को दे रहे हैं ख़ाक-बाज़ी का...
अमल से ज़िंदगी बनती है जन्नत भी जहन्नम भी ये ख़ाकी अपनी फ़ितरत में न नूरी है न नारी है...
अगर कज-रौ हैं अंजुम आसमाँ तेरा है या मेरा मुझे फ़िक्र-ए-जहाँ क्यूँ हो जहाँ तेरा है या मेरा अगर हंगामा-हा-ए-शौक़ से है ला-मकाँ ख़ाली ख़ता किस की है या रब ला-मकाँ तेरा है या मेरा...
ख़ुदावंदा ये तेरे सादा-दिल बंदे किधर जाएँ कि दरवेशी भी अय्यारी है सुल्तानी भी अय्यारी...
ये कौन ग़ज़ल-ख़्वाँ है पुर-सोज़ ओ नशात-अंगेज़ अंदेशा-ए-दाना को करता है जुनूँ-आमेज़ गो फ़क़्र भी रखता है अंदाज़-ए-मुलूकाना ना-पुख़्ता है परवेज़ी बे-सल्तनत-ए-परवेज़...
चिश्ती ने जिस ज़मीं में पैग़ाम-ए-हक़ सुनाया नानक ने जिस चमन में वहदत का गीत गाया तातारियों ने जिस को अपना वतन बनाया जिस ने हिजाज़ियों से दश्त-ए-अरब छुड़ाया...
यूँ हाथ नहीं आता वो गौहर-ए-यक-दाना यक-रंगी ओ आज़ादी ऐ हिम्मत-ए-मर्दाना या संजर ओ तुग़रल का आईन-ए-जहाँगीरी या मर्द-ए-क़लंदर के अंदाज़-ए-मुलूकाना...
हुए मदफ़ून-ए-दरिया ज़ेर-ए-दरिया तैरने वाले तमांचे मौज के खाते थे जो बन कर गुहर निकले...
ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़ इशारा पाते ही सूफ़ी ने तोड़ दी परहेज़ बिछाई है जो कहीं इश्क़ ने बिसात अपनी किया है उस ने फ़क़ीरों को वारिस-ए-परवेज़...
ये पीरान-ए-कलीसा-ओ-हरम ऐ वा-ए-मजबूरी सिला इन की कद-ओ-काविश का है सीनों की बे-नूरी यक़ीं पैदा कर ऐ नादाँ यक़ीं से हाथ आती है वो दरवेशी कि जिस के सामने झुकती है फ़ग़्फ़ूरी...
नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में...
पूछ उस से कि मक़्बूल है फ़ितरत की गवाही तू साहिब-ए-मंज़िल है कि भटका हुआ राही काफ़िर है मुसलमाँ तो न शाही न फ़क़ीरी मोमिन है तो करता है फ़क़ीरी में भी शाही...
(उंदुलुस के मैदान-ए-जंग में) ये ग़ाज़ी ये तेरे पुर-असरार बंदे जिन्हें तू ने बख़्शा है ज़ौक़-ए-ख़ुदाई दो-नीम उन की ठोकर से सहरा ओ दरिया...
कमाल-ए-जोश-ए-जुनूँ में रहा मैं गर्म-ए-तवाफ़ ख़ुदा का शुक्र सलामत रहा हरम का ग़िलाफ़ ये इत्तिफ़ाक़ मुबारक हो मोमिनों के लिए कि यक ज़बाँ हैं फ़क़ीहान-ए-शहर मेरे ख़िलाफ़...
मुझे रोकेगा तू ऐ नाख़ुदा क्या ग़र्क़ होने से कि जिन को डूबना है डूब जाते हैं सफ़ीनों में...