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रहा न हल्क़ा-ए-सूफ़ी में सोज़-ए-मुश्ताक़ी फ़साना-हा-ए-करामात रह गए बाक़ी ख़राब कोशक-ए-सुल्तान ओ ख़ानक़ाह-ए-फ़क़ीर फ़ुग़ाँ कि तख़्त ओ मुसल्ला कमाल-ए-रज़्ज़ाक़ी...

आँख जो कुछ देखती है लब पे आ सकता नहीं महव-ए-हैरत हूँ कि दुनिया क्या से क्या हो जाएगी...

इश्क़ तिरी इंतिहा इश्क़ मिरी इंतिहा तू भी अभी ना-तमाम मैं भी अभी ना-तमाम...

सूरज ने दिया अपनी शुआओं को ये पैग़ाम दुनिया है अजब चीज़ कभी सुब्ह कभी शाम मुद्दत से तुम आवारा हो पहना-ए-फ़ज़ा में बढ़ती ही चली जाती है बे-मेहरी-ए-अय्याम...

दयार-ए-इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर नया ज़माना नए सुब्ह ओ शाम पैदा कर ख़ुदा अगर दिल-ए-फ़ितरत-शनास दे तुझ को सुकूत-ए-लाला-ओ-गुल से कलाम पैदा कर...

मोती समझ के शान-ए-करीमी ने चुन लिए क़तरे जो थे मिरे अरक़-ए-इंफ़िआ'ल के...

तू अभी रहगुज़र में है क़ैद-ए-मक़ाम से गुज़र मिस्र ओ हिजाज़ से गुज़र पारस ओ शाम से गुज़र जिस का अमल है बे-ग़रज़ उस की जज़ा कुछ और है हूर ओ ख़ियाम से गुज़र बादा-ओ-जाम से गुज़र...

यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो तुम सभी कुछ हो बताओ मुसलमान भी हो...

ख़िरद के पास ख़बर के सिवा कुछ और नहीं तिरा इलाज नज़र के सिवा कुछ और नहीं हर इक मक़ाम से आगे मक़ाम है तेरा हयात ज़ौक़-ए-सफ़र के सिवा कुछ और नहीं...

ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं तू आबजू इसे समझा अगर तो चारा नहीं तिलिस्म-ए-गुंबद-ए-गर्दूं को तोड़ सकते हैं ज़ुजाज की ये इमारत है संग-ए-ख़ारा नहीं...

मिरी निगाह में वो रिंद ही नहीं साक़ी जो होशियारी ओ मस्ती में इम्तियाज़ करे...

हज़ार ख़ौफ़ हो लेकिन ज़बाँ हो दिल की रफ़ीक़ यही रहा है अज़ल से क़लंदरों का तरीक़ हुजूम क्यूँ है ज़ियादा शराब-ख़ाने में फ़क़त ये बात कि पीर-ए-मुग़ाँ है मर्द-ए-ख़लीक़...

तेरा इमाम बे-हुज़ूर तेरी नमाज़ बे-सुरूर ऐसी नमाज़ से गुज़र ऐसे इमाम से गुज़र...

निगाह-ए-इश्क़ दिल-ए-ज़िंदा की तलाश में है शिकार-ए-मुर्दा सज़ा-वार-ए-शाहबाज़ नहीं...

सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर ग़ैर से ग़ाफ़िल हूँ मैं हाए क्या अच्छी कही ज़ालिम हूँ मैं जाहिल हूँ मैं मैं जभी तक था कि तेरी जल्वा-पैराई न थी जो नुमूद-ए-हक़ से मिट जाता है वो बातिल हूँ मैं...

निकल जा अक़्ल से आगे कि ये नूर चराग़-ए-राह है मंज़िल नहीं है...

हुई न आम जहाँ में कभी हुकूमत-ए-इश्क़ सबब ये है कि मोहब्बत ज़माना-साज़ नहीं...

वही मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी मिरे काम कुछ न आया ये कमाल-ए-नै-नवाज़ी मैं कहाँ हूँ तू कहाँ है ये मकाँ कि ला-मकाँ है ये जहाँ मिरा जहाँ है कि तिरी करिश्मा-साज़ी...

है याद मुझे नुक्ता-ए-सलमान-ए-ख़ुश-आहंग दुनिया नहीं मर्दान-ए-जफ़ा-कश के लिए तंग चीते का जिगर चाहिए शाहीं का तजस्सुस जी सकते हैं बे-रौशनी-ए-दानिश-ओ-फ़रहंग...

ऐ हिमाला ऐ फ़सील-ए-किश्वर-ए-हिन्दुस्तान चूमता है तेरी पेशानी को झुक कर आसमाँ तुझ में कुछ पैदा नहीं देरीना रोज़ी के निशाँ तू जवाँ है गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर के दरमियाँ...

मेरी नवा-ए-शौक़ से शोर हरीम-ए-ज़ात में ग़ुल्ग़ुला-हा-ए-अल-अमाँ बुत-कदा-ए-सिफ़ात में हूर ओ फ़रिश्ता हैं असीर मेरे तख़य्युलात में मेरी निगाह से ख़लल तेरी तजल्लियात में...

हया नहीं है ज़माने की आँख में बाक़ी ख़ुदा करे कि जवानी तिरी रहे बे-दाग़...

बातिल से दबने वाले ऐ आसमाँ नहीं हम सौ बार कर चुका है तू इम्तिहाँ हमारा...

फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर तस्ख़ीर-ए-मक़ाम-ए-रंग-ओ-बू कर तू अपनी ख़ुदी को खो चुका है खोई हुई शय की जुस्तुजू कर...

जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही खुलते हैं ग़ुलामों पर असरार-ए-शहंशाही 'अत्तार' हो 'रूमी' हो 'राज़ी' हो 'ग़ज़ाली' हो कुछ हाथ नहीं आता बे-आह-ए-सहर-गाही...

सच कह दूँ ऐ बरहमन गर तू बुरा न माने तेरे सनम-कदों के बुत हो गए पुराने अपनों से बैर रखना तू ने बुतों से सीखा जंग-ओ-जदल सिखाया वाइज़ को भी ख़ुदा ने...

इश्क़ भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में या तो ख़ुद आश्कार हो या मुझे आश्कार कर...

दिल से जो बात निकलती है असर रखती है पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है क़ुदसी-उल-अस्ल है रिफ़अत पे नज़र रखती है ख़ाक से उठती है गर्दूं पे गुज़र रखती है...

आसमाँ बादल का पहने ख़िरक़ा-ए-देरीना है कुछ मुकद्दर सा जबीन-ए-माह का आईना है चाँदनी फीकी है इस नज़्ज़ारा-ए-ख़ामोश में सुब्ह-ए-सादिक़ सो रही है रात की आग़ोश में...

जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते...

पास था नाकामी-ए-सय्याद का ऐ हम-सफ़ीर वर्ना मैं और उड़ के आता एक दाने के लिए...

सुने कोई मिरी ग़ुर्बत की दास्ताँ मुझ से भुलाया क़िस्सा-ए-पैमान-ए-अव्वलीं में ने लगी न मेरी तबीअत रियाज़-ए-जन्नत में पिया शुऊर का जब जाम-ए-आतिशीं मैं ने...

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा हम बुलबुलें हैं इस की ये गुलसिताँ हमारा...

अनोखी वज़्अ' है सारे ज़माने से निराले हैं ये आशिक़ कौन सी बस्ती के या-रब रहने वाले हैं इलाज-ए-दर्द में भी दर्द की लज़्ज़त पे मरता हूँ जो थे छालों में काँटे नोक-ए-सोज़न से निकाले हैं...

समुंदर से मिले प्यासे को शबनम बख़ीली है ये रज़्ज़ाक़ी नहीं है...

असर ये तेरे एजाज़-ए-मसीहाई का है 'अकबर' इलाहाबाद से लंगड़ा चला लाहौर तक आया...

करेंगे अहल-ए-नज़र ताज़ा बस्तियाँ आबाद मिरी निगाह नहीं सू-ए-कूफ़ा-ओ-बग़दाद ये मदरसा ये जवाँ ये सुरूर ओ रानाई इन्हीं के दम से है मय-ख़ाना-ए-फ़रंग आबाद...

गर्म-ए-फ़ुग़ाँ है जरस उठ कि गया क़ाफ़िला वाए वो रह-रौ कि है मुंतज़़िर-ए-राहिला तेरी तबीअत है और तेरा ज़माना है और तेरे मुआफ़िक़ नहीं ख़ानक़ही सिलसिला...

गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद न बेगाना-वार देख है देखने की चीज़ इसे बार बार देख आया है तू जहाँ में मिसाल-ए-शरार देख दम दे न जाए हस्ती-ना-पाएदार देख...

यक़ीं मोहकम अमल पैहम मोहब्बत फ़ातेह-ए-आलम जिहाद-ए-ज़िंदगानी में हैं ये मर्दों की शमशीरें...