नज़दीकियों में दूर का मंज़र तलाश कर जो हाथ में नहीं है वो पत्थर तलाश कर सूरज के इर्द-गिर्द भटकने से फ़ाएदा दरिया हुआ है गुम तो समुंदर तलाश कर...
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं...
दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखें ज़िंदगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही...
आसमाँ लोहा दिशाएँ पत्थर सर-निगूँ सारे खुजूरों के दरख़्त कोई हरकत न सदा बुझ गई बूढ़ी पहाड़ी पे चमकती हुई आग!...
जो हो इक बार वो हर बार हो ऐसा नहीं होता हमेशा एक ही से प्यार हो ऐसा नहीं होता हर इक कश्ती का अपना तजरबा होता है दरिया में सफ़र में रोज़ ही मंजधार हो ऐसा नहीं होता...
यक़ीन चाँद पे सूरज में ए'तिबार भी रख मगर निगाह में थोड़ा सा इंतिज़ार भी रख ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख...
होश वालों को ख़बर क्या है बे-ख़ुदी क्या चीज़ है इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है...
दूर शादाब पहाड़ी पे बना इक बंगला लाल खपरैलों पे फैली हुई अँगूर की बेल सेहन में बिखरे हुए मिट्टी के राजा-रानी मुँह चिढ़ाती हुई बच्चों को कोई दीवानी...
घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगे हर तरफ़ तेज़ हवाएँ हैं बिखर जाओगे इतना आसाँ नहीं लफ़्ज़ों पे भरोसा करना घर की दहलीज़ पुकारेगी जिधर जाओगे...
कठ-पुतली है या जीवन है जीते जाओ सोचो मत सोच से ही सारी उलझन है जीते जाओ सोचो मत लिखा हुआ किरदार कहानी में ही चलता फिरता है कभी है दूरी कभी मिलन है जीते जाओ सोचो मत...
वक़्त बंजारा-सिफ़त लम्हा ब लम्हा अपना किस को मालूम यहाँ कौन है कितना अपना जो भी चाहे वो बना ले उसे अपने जैसा किसी आईने का होता नहीं चेहरा अपना...
हर चमकती क़ुर्बत में एक फ़ासला देखूँ कौन आने वाला है किस का रास्ता देखूँ शाम का धुँदलका है या उदास ममता है भूली-बिसरी यादों से फूटती दुआ देखूँ...
एक ही धरती हम सब का घर जितना तेरा उतना मेरा दुख सुख का ये जंतर-मंतर जितना तेरा उतना मेरा गेहूँ चावल बाँटने वाले झूटा तौलें तो क्या बोलें यूँ तो सब कुछ अंदर बाहर जितना तेरा उतना मेरा...
हमारा 'मीर'-जी' से मुत्तफ़िक़ होना है ना-मुम्किन उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का भारी क्या...
कोशिश के बावजूद ये इल्ज़ाम रह गया हर काम में हमेशा कोई काम रह गया छोटी थी उम्र और फ़साना तवील था आग़ाज़ ही लिखा गया अंजाम रह गया...
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो जहाँ उमीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता...
उस को खो देने का एहसास तो कम बाक़ी है जो हुआ वो न हुआ होता ये ग़म बाक़ी है अब न वो छत है न वो ज़ीना न अँगूर की बेल सिर्फ़ इक उस को भुलाने की क़सम बाक़ी है...
मशीन चल रही हैं नीले पीले लाल लोहे की मशीनों में हज़ारों आहनी पुर्ज़े मुक़र्रर हरकतों के दाएरों में...