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तुम्हारी क़ब्र पर मैं फ़ातिहा पढ़ने नहीं आया मुझे मालूम था तुम मर नहीं सकते...

दुश्मनी लाख सही ख़त्म न कीजे रिश्ता दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिए...

वो लड़की याद आती है जो होंटों से नहीं पूरे बदन से बात करती थी सिमटते वक़्त भी चारों दिशाओं में बिखरती थी वो लड़की याद आती है...

इतना सच बोल कि होंटों का तबस्सुम न बुझे रौशनी ख़त्म न कर आगे अँधेरा होगा...

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो...

बदला न अपने-आप को जो थे वही रहे मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे...

नील-गगन में तैर रहा है उजला उजला पूरा चाँद माँ की लोरी सा बच्चे के दूध कटोरे जैसा चाँद मुन्नी की भोली बातों सी चटकीं तारों की कलियाँ पप्पू की ख़ामोशी शरारत सा छुप छुप कर उभरा चाँद...

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है अच्छा सा कोई मौसम तन्हा सा कोई आलम हर वक़्त का रोना तो बे-कार का रोना है...

आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया बंद गली के आख़िरी घर को खोल के फिर आबाद किया खोल के खिड़की चाँद हँसा फिर चाँद ने दोनों हाथों से रंग उड़ाए फूल खिलाए चिड़ियों को आज़ाद किया...

मुद्दतें बीत गईं तुम नहीं आईं अब तक रोज़ सूरज के बयाबाँ में भटकती है हयात...

चाहतें मौसमी परिंदे हैं रुत बदलते ही लौट जाते हैं घोंसले बन के टूट जाते हैं दाग़ शाख़ों पे चहचहाते हैं आने वाले बयाज़ में अपनी जाने वालों के नाम लिखते हैं सब ही औरों के ख़ाली कमरों को अपनी अपनी तरह सजाते हैं...

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए...

ये जो फैला हुआ ज़माना है इस का रक़्बा ग़रीब-ख़ाना है कोई मंज़र सदा नहीं रहता हर तअल्लुक़ मुसाफ़िराना है...

अब किसी से भी शिकायत न रही जाने किस किस से गिला था पहले...

इतनी पी जाओ कि कमरे की सियह ख़ामोशी इस से पहले कि कोई बात करे तेज़ नोकीले सवालात करे...

कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है सब ने इंसान न बनने की क़सम खाई है...

बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता...

देखते देखते उस के चारों तरफ़ सात रंगों का रेशम बिखरने लगा धीमे धीमे कई खिड़कियाँ सी खुलीं...

ये काटे से नहीं कटते ये बाँटे से नहीं बटते नदी के पानियों के सामने आरी कटारी क्या...

सूनी सूनी थी फ़ज़ा मैं ने यूँही उस के बालों में गुँधी ख़ामोशियों को छू लिया वो मुड़ी...

यूँ लग रहा है जैसे कोई आस-पास है वो कौन है जो है भी नहीं और उदास है मुमकिन है लिखने वाले को भी ये ख़बर न हो क़िस्से में जो नहीं है वही बात ख़ास है...

कोई नहीं है आने वाला फिर भी कोई आने को है आते जाते रात और दिन में कुछ तो जी बहलाने को है चलो यहाँ से अपनी अपनी शाख़ों पे लौट आए परिंदे भूली-बिसरी यादों को फिर तन्हाई दोहराने को है...

हर इक रस्ता अंधेरों में घिरा है मोहब्बत इक ज़रूरी हादसा है गरजती आँधियाँ ज़ाए हुई हैं ज़मीं पे टूट के आँसू गिरा है...

काला अम्बर पीली धरती या अल्लाह हा-हा हे-हे ही-ही-ही-ही या अल्लाह करगिल और कश्मीर ही तेरे नाम हों क्यूँ भाई बहन महबूबा बेटी या अल्लाह...

तन्हा तन्हा दुख झेलेंगे महफ़िल महफ़िल गाएँगे जब तक आँसू पास रहेंगे तब तक गीत सुनाएँगे तुम जो सोचो वो तुम जानो हम तो अपनी कहते हैं देर न करना घर आने में वर्ना घर खो जाएँगे...

उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा...

मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं जुदा जुदा हैं धर्म इलाक़े एक सी लेकिन ज़ंजीरें हैं...

उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा इतना सच बोल कि होंटों का तबस्सुम न बुझे रौशनी ख़त्म न कर आगे अंधेरा होगा...

ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ दूर के साथी हैं फिर रस्ता ही रस्ता है हँसना है न रोना है...

नज़्म बहुत आसान थी पहले घर के आगे पीपल की शाख़ों से उछल के आते जाते...

गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया होते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया इक इश्क़ नाम का जो परिंदा ख़ला में था उतरा जो शहर में तो दुकानों में बट गया...

जितनी बुरी कही जाती है उतनी बुरी नहीं है दुनिया बच्चों के स्कूल में शायद तुम से मिली नहीं है दुनिया...

कुछ तबीअत ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत न हुई जिस को चाहा उसे अपना न सके जो मिला उस से मोहब्बत न हुई जिस से जब तक मिले दिल ही से मिले दिल जो बदला तो फ़साना बदला रस्म-ए-दुनिया को निभाने के लिए हम से रिश्तों की तिजारत न हुई...

हम भी किसी कमान से निकले थे तीर से ये और बात है कि निशाने ख़ता हुए...

अब ख़ुशी है न कोई दर्द रुलाने वाला हम ने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला एक बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा जिस तरफ़ देखिए आने को है आने वाला...

हर एक घर में दिया भी जले अनाज भी हो अगर न हो कहीं ऐसा तो एहतिजाज भी हो रहेगी वादों में कब तक असीर ख़ुश-हाली हर एक बार ही कल क्यूँ कभी तो आज भी हो...

बैठे बैठे यूँही क़लम ले कर मैं ने काग़ज़ के एक कोने पर अपनी माँ अपने बाप के दो नाम...

कल रात वो थका हुआ चुप चुप उदास उदास...

मुमकिन है सफ़र हो आसाँ अब साथ भी चल कर देखें कुछ तुम भी बदल कर देखो कुछ हम भी बदल कर देखें...

इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी रात जंगल में कोई शम्अ जलाने से रही...