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ज़ालिम ये ख़मोशी बेजा है इक़रार नहीं इंकार तो हो इक आह तो निकले तोड़ के दिल नग़्मे न सही झंकार तो हो हर साँस में सदहा नग़्मे हैं हर ज़र्रे में लाखों जल्वे हैं जाँ महव-ए-रुमूज़-ए-साज़ तो हो दिल जल्वा-गह-ए-अनवार तो हो...

ये नसीब-ए-शाइरी है ज़हे शान-ए-किब्रियाई कि मिले न ज़िंदगी भर मुझे दाद-ए-ख़ुश-नवाई ब-ख़ुदा अज़ीम-तर है शोहदा के ख़ून से भी मिरे सीना-ए-क़लम में जो भरी है रौशनाई...

वो सब्र दे कि न दे जिस ने बे-क़रार किया बस अब तुम्हीं पे चलो हम ने इंहिसार किया तुम्हारा ज़िक्र नहीं है तुम्हारा नाम नहीं किया नसीब का शिकवा हज़ार बार किया...

एक दोशीज़ा सड़क पर धूप में है बे-क़रार चूड़ियाँ बजती हैं कंकर कूटने में बार बार चूड़ियों के साज़ में ये सोज़ है कैसा भरा आँख में आँसू बनी जाती है जिस की हर सदा...

ऐ वतन पाक वतन रूह-ए-रवान-ए-अहरार ऐ कि ज़र्रों में तिरे बू-ए-चमन रंग-ए-बहार ऐ कि ख़्वाबीदा तिरी ख़ाक में शाहाना वक़ार ऐ कि हर ख़ार तिरा रू-कश-ए-सद-रू-ए-निगार...

क्या हिंद का जिंदाँ काँप रहा गूँज रही हैं तकबीरें उकताए हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं जंज़ीरें दीवारों के नीचे आ-आ कर यूँ जमा हुए हैं ज़िंदगानी सीनों में तलातुम बिजली का आँखों में झलकती शमशीरें...

क़सम इस दिल की, चस्‍का है जिसे सहबापरस्‍ती का यह दिल पहचानता है जो मिज़ाज अशियाए-हस्‍ती का क़सम इन तेज़ किरनों की कि हंगामे-कदहनौशी सुना करते हैं जो रातों को बहर-ओ-बर की सरगोशी...

किस ज़बाँ से कह रहे हो आज तुम सौदागरो दहर में इंसानियत के नाम को ऊँचा करो जिस को सब कहते हैं हिटलर भेड़िया है भेड़िया भेड़िये को मार दो गोली पए-अम्न-ओ-बक़ा...

इस बात की नहीं है कोई इंतिहा न पूछ ऐ मुद्दआ-ए-ख़ल्क़ मिरा मुद्दआ न पूछ क्या कह के फूल बनती हैं कलियाँ गुलाब की ये राज़ मुझ से बुलबुल-ए-शीरीं-नवा न पूछ...

सारी दुनिया है एक पर्दा-ए-राज़ उफ़ रे तेरे हिजाब के अंदाज़ मौत को अहल-ए-दिल समझते हैं ज़िंदगानी-ए-इश्क़ का आग़ाज़...

किस को आती है मसिहाई किसे आवाज़ दूँ बोल ऐ ख़ूं ख़ार तनहाई किसे आवाज़ दूँ चुप रहूँ तो हर नफ़स डसता है नागन की तरह आह भरने में है रुसवाई किसे आवाज़ दूँ ...

रहम ऐ नक़्क़ाद-ए-फ़न ये क्या सितम करता है तू कोई नोक-ए-ख़ार से छूता है नब्ज़-ए-रंग-ओ-बू शायरी और मंतक़ी बहसें ये कैसा क़त्ल-ए-आम बुर्रिश-ए-मिक़राज़ का देता है ज़ुल्फ़ों को पयाम...

मिला जो मौक़ा तो रोक दूँगा 'जलाल' रोज़-ए-हिसाब तेरा पढूँगा रहमत का वो क़सीदा कि हँस पड़ेगा इताब तेरा यही तो हैं दो सुतून-ए-महकम इन्हीं पे क़ाइम है नज़्म-ए-आलम यही तो है राज़-ए-ख़ुल्द-ओ-आदम निगाह मेरी शबाब तेरा...

सय्याद दाम-ए-ज़ुल्फ़ से मुझ को रिहा करे वो दिन तमाम उम्र न आए ख़ुदा करे ले दे के रह गया है यही एक आसरा ऐसा कभी न हो कि वो तर्क-ए-वफ़ा करे...

अहल-ए-दवल में धूम थी रोज़-ए-सईद की मुफ़्लिस के दिल में थी न किरन भी उम्मीद की इतने में और चरख़ ने मट्टी पलीद की बच्चे ने मुस्कुरा के ख़बर दी जो ईद की ...

सोज़-ए-ग़म दे के मुझे उस ने ये इरशाद किया जा तुझे कशमकश-ए-दहर से आज़ाद किया वो करें भी तो किन अल्फ़ाज़ में तेरा शिकवा जिन को तेरी निगह-ए-लुत्फ़ ने बर्बाद किया...

हम ऐसे अहल-ए-नज़र को सुबूत-ए-हक़ के लिए अगर रसूल न होते तो सुब्ह काफ़ी थी...

ये बात ये तबस्सुम ये नाज़ ये निगाहें आख़िर तुम्हीं बताओ क्यूँकर न तुम को चाहें अब सर उठा के मैं ने शिकवों से हात उठाया मर जाऊँगा सितमगर नीची न कर निगाहें...

छट गए जब आप ही ऊदी घटा छाई तो क्या तुर्बत-ए-पामाल के सब्ज़े पे लहर आई तो क्या जब ज़रूरत ही रही बाक़ी न लहन-ओ-रंग की कोयलें कूकीं तो क्या सावन की रुत आई तो क्या...

क़दम इंसान का राह-ए-दहर में थर्रा ही जाता है चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है नज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आश्ना फिर भी हुजूम-ए-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है ...

उधर मज़हब इधर इंसाँ की फ़ितरत का तक़ाज़ा है वो दामान-ए-मह-ए-कनआँ है ये दस्त-ए-ज़ुलेख़ा है इधर तेरी मशिय्यत है उधर हिकमत रसूलों की इलाही आदमी के बाब में क्या हुक्म होता है...

इतना मानूस हूँ फ़ितरत से कली जब चटकी झुक के मैं ने ये कहा मुझ से कुछ इरशाद किया?...

अस्सलामें ताजदारे जर्मनी ऐ हिटलरे आजम फिदा-ए-कौम शेदा-ए-वतन ऐ नैयरे आजम सुना तो होगा तू ने एक बदवख्तों की बस्ती है जहां जीती हुई हर चीज जीने को तरसती है...

होशियार! अपनी मताए-रहबरी से होशियार अय ख़लिश नाआशना पीरी-ओ-शैबे-हिरज़ाकार उड़ गया रूए-ज़मीं ओ-आस्‍मां से रंगे-ख़्वाब झिलमिलाती शम्अ रुख़्सत हो कि उभरा आफ़ताब...

ज़िन्दगी ख़्वाबे-परीशाँ है कोई क्या जाने मौत की लरज़िशे-मिज़्गाँ है कोई क्या जाने रामिश-ओ-रंग के ऐवान में लैला-ए-हयात सिर्फ़ एक रात की मेहमाँ है कोई क्या जाने ...

क्या सिर्फ मुसलमानों के प्यारे हैं हुसैन, चर्खे नौए बशर के तारे हैं हुसैन, इंसान को बेदार तो हो लेने दो, हर कौम पुकारेगी हमारे है हुसैन...

नक़्श-ए-ख़याल दिल से मिटाया नहीं हनोज़ बेदर्द मैंने तुझको भुलाया नहीं हनोज़ वो सर जो तेरी राहगुज़र में था सज्दा-रेज़ मैं ने किसी क़दम पे झुकाया नहीं हनोज़ ...

वो जोश ख़ैरगी है तमाशा कहें जिसे बेपरदा यूँ हुए हैं के परदा कहें जिसे अल्लाह रे ख़ाकसारिए रिंदाँने बादाख्वार रश्क-ए-ग़ुरूर-ओ-क़ैसर-ओ-कसरा कहें जिसे...

ख़ुद अपनी ज़िन्दगी से वहशत-सी हो गई है तारी कुछ ऐसी दिल पे इबरत-सी हो गई है ज़ौक़े-तरब से दिल को होने लगी है वहशत कुछ ऐसी ग़म की जानिब रग़बत-सी हो गई है...

ये दिन बहार के अब के भी रास न आ सके कि ग़ुंचे खिल तो सके खिल के मुस्कुरा न सके मेरी तबाही दिल पर तो रहम खा न सकी जो रोशनी में रहे रोशनी को पा न सके ...

क़सम है आपके हर रोज़ रूठ जाने की के अब हवस है अजल को गले लगाने की वहाँ से है मेरी हिम्मत की इब्तिदा अल्लाह जो इंतिहा है तेरे सब्र आज़माने की...