सय्याद दाम-ए-ज़ुल्फ़ से मुझ को रिहा करे
सय्याद दाम-ए-ज़ुल्फ़ से मुझ को रिहा करे वो दिन तमाम उम्र न आए ख़ुदा करे ले दे के रह गया है यही एक आसरा ऐसा कभी न हो कि वो तर्क-ए-वफ़ा करे मुझ बे-नवा के नाज़ उठाए वो नाज़नीं सुल्तान और काविश-ए-क़ुर्ब-ए-गदा करे दामान-ए-बू-ए-काकुल-ए-शब रंग छोड़ दे या रब कभी ये ज़ुल्म न बाद-ए-सबा करे जिस के मरज़ पे सेहत-ए-आलम निसार हो किस तरह वो मरीज़ दुआ-ए-शिफ़ा करे बुत जिस पे मुल्तफ़ित हो ब-हद्द-ए-सुपुर्दगी ज़िंदीक़ है अगर वो ख़ुदा से दुआ करे उम्र-ए-दराज़ ओ पुख़्तगी-ए-फ़िक्र-ए-नुक्ता-संज कहती है ख़ाम काम मुझे हाँ कहा करे उस रू-ए-दिल-नशीं पे निगाहें जमी रहीं फ़रियाद कर रही है बसीरत कि क्या करे अब दाम-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ से निकलूँ न ता-ब मर्ग घर जल रहा है अक़्ल-ए-रसा का जला करे हिकमत नमक-हराम हूँ बे-शक तिरा मगर जिस पर पड़े ये वक़्त वो बेचारा क्या करे या रब हिसार-ए-नज्द से अब उठ सके न 'जोश' यूनान दे रहा है दुहाई दिया करे

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