Page 1 of 3

इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत है जो डर के नार-ए-दोज़ख़ से ख़ुदा का नाम लेते हैं इबादत क्या वो ख़ाली बुज़दिलाना एक ख़िदमत है ...

ख़ुशियाँ मनाने पर भी है मजबूर आदमी आँसू बहाने पर भी है मजबूर आदमी और मुस्‍कराने पर भी है मजबूर आदमी दुनिया में आने पर भी है मजबूर आदमी...

गुदाज़-ए-दिल से बातिन का तजल्ली-ज़ार हो जाना मोहब्बत अस्ल में है रूह का बेदार हो जाना नवेद-ए-ऐश से ऐ दिल ज़रा हुश्यार हो जाना किसी ताज़ा मुसीबत के लिए तय्यार हो जाना...

झुटपुटे का नर्म-रौ दरिया शफ़क़ का इज़्तिराब खेतियाँ मैदान ख़ामोशी ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब दश्त के काम-ओ-दहन को दिन की तल्ख़ी से फ़राग़ दूर दरिया के किनारे धुँदले धुँदले से चराग़...

सुबूत है ये मोहब्बत की सादा-लौही का जब उस ने वादा किया हम ने ए'तिबार किया...

आड़े आया न कोई मुश्किल में मशवरे दे के हट गए अहबाब...

तबस्सुम की सज़ा कितनी कड़ी है गुलों को खिल के मुरझाना पड़ा है...

ऐ मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा अलविदा ऐ सरज़मीन-ए-सुबह-ए-खन्दां अलविदा अलविदा ऐ किशवर-ए-शेर-ओ-शबिस्तां अलविदा अलविदा ऐ जलवागाहे हुस्न-ए-जानां अलविदा...

हद है अपनी तरफ़ नहीं मैं भी और उन की तरफ़ ख़ुदाई है...

फ़िक्र ही ठहरी तो दिल को फ़िक्रे-ख़ूबाँ क्यों न हो ख़ाक होना है तो ख़ाके-कू-ए-जानाँ क्यों न हो ज़ीस्त है जब मुस्तक़िल आवाराग़र्दी ही का नाम अक़्ल वालो! फिर तवाफ़े-कू-ए-जानाँ क्यों न हो ...

आज़ादा-मनिश रह दुनिया में परवा-ए-उम्मीद-ओ-बीम न कर जब तक न मिलें फ़ितरत के क़दम ख़म देख सर-ए-तस्लीम न कर सीने में है उस के सोज़ अगर शैताँ के क़दम ले आँखों पर बेगाना-ए-दर्द-ए-दिल है अगर जिबरील की भी ताज़ीम न कर...

आओ काबे से उठें सू-ए-सनम-ख़ाना चलें ताबा-ए-फ़क़्र कहे सवलत-ए-शाहाना चलें काँप उठे बारगह-ए-सर-ए-अफ़ाफ़-ए-मलकूत यूँ मआसी का लुंढाते हुए पैमाना चलें...

दोस्तो वक़्त है फिर ज़ख़्म-ए-जिगर ताज़ा करें पर्दा जुम्बिश में है फिर आओ नज़र ताज़ा करें ता-कुजा नाला-ए-ग़ुर्बत कि चली बाद-ए-शिमाल दिल में फिर ज़मज़मा-ए-अज़्म-ए-सफ़र ताज़ा करें...

क्‍या हिन्‍द का ज़िंदां कांप रहा है, गूंज रही है तकबीरें उक्‍ताये हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें दीवारों के नीचे आ आ कर यूं जमा हुए हैं ज़िन्‍दानी सीनों में तलातुम बिजली की, आंखों में झलकती शमशीरें...

नज़र झुकाए उरूस-ए-फ़ितरत जबीं से ज़ुल्फ़ें हटा रही है सहर का तारा है ज़लज़ले में उफ़ुक़ की लौ थरथरा रही है रविश रविश नग़्मा-ए-तरब है चमन चमन जश्न-ए-रंग-ओ-बू है तुयूर शाख़ों पे हैं ग़ज़ल-ख़्वाँ कली कली गुनगुना रही है...

सोज़-ए-ग़म दे के मुझे उस ने ये इरशाद किया जा तुझे कशमकश-ए-दहर से आज़ाद किया...

वो करें भी तो किन अल्फ़ाज़ में तेरा शिकवा जिन को तेरी निगह-ए-लुत्फ़ ने बर्बाद किया...

इक ज़ईफ़ा रास्ते में सो रही है ख़ाक पर मुर्दनी छाई हुई है चेहरा-ए-ग़मनाक पर और किस मौसम में जब ताऊन है फैला हुआ ज़र्रा ज़र्रा है वबा के ख़ौफ़ से सिमटा हुआ...

वहाँ से है मिरी हिम्मत की इब्तिदा वल्लाह जो इंतिहा है तिरे सब्र आज़माने की...

ख़ुर्शीद वो देखो डूब गया ज़ुल्मत का निशाँ लहराने लगा महताब वो हल्के बादल से चाँदी के वरक़ बरसाने लगा वो साँवले-पन पर मैदाँ के हल्की सी सबाहत दौड़ चली थोड़ा सा उभर कर बादल से वो चाँद जबीं झलकाने लगा...

क्या हिन्द का ज़िंदाँ काँप रहा है गूँज रही हैं तक्बीरें उकताए हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें दीवारों के नीचे आ आ कर यूँ जम्अ हुए हैं ज़िंदानी सीनों में तलातुम बिजली का आँखों में झलकती शमशीरें...

कोई आया तिरी झलक देखी कोई बोला सुनी तिरी आवाज़...

ज़ोफ़ से आँखों के नीचे तितलियाँ फिरती हुई औज-ए-ख़ुद्दारी से दिल पर बिजलियाँ गिरती हुई लाश काँधे पर ख़ुद अपने जज़्बा-ए-तकरीम की मुल्तजी चेहरे पे लहरें सी उम्मीद-ओ-बीम की...

मोजिद ओ मुफक्किर कर दिया तू ने यह साबित, ऐ दीलावर 'आदमी' ज़िन्दगी क्या , मौत से लेता है टक्कर 'आदमी' काट सकता है रके गर्दन से खंजर आदमी लश्करो को रोन्द सकता है... आदमी...

ऐ मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्ताँ अलविदा'अ अलविदा'अ ऐ सर-ज़मीन-ए-सुब्ह-ए-ख़ंदाँ अलविदा'अ अलविदा'अ ऐ किश्वर-ए-शेर-ओ-शबिस्ताँ अलविदा'अ अलविदा'अ ऐ जल्वा-गाह-ए-हुस्न-ए-जानाँ अलविदा'अ...

बेहोशियों ने और ख़बरदार कर दिया सोई जो अक़्ल रूह ने बेदार कर दिया अल्लाह रे हुस्न-ए-दोस्त की आईना-दारियाँ अहल-ए-नज़र को नक़्श-ब-दीवार कर दिया...

नगरी मेरी कब तक युँही बरबाद रहेगी दुनिया यही दुनिया है तो क्‍या याद रहेगी आकाश पे निखरा हुआ सूरज का है मुखड़ा और धरती पे उतरे हुए चेहरों का है दुखड़ा...

इधर तेरी मशिय्यत है उधर हिकमत रसूलों की इलाही आदमी के बाब में क्या हुक्म होता है...

हैरत है आह-ए-सुब्ह को सारी फ़ज़ा सुने लेकिन ज़मीं पे बुत न फ़लक पर ख़ुदा सुने फ़रियाद-ए-अंदलीब से काँपे तमाम बाग़ लेकिन न गुल न ग़ुंचा न बाद-ए-सबा सुने...

किसने वादा किया है आने का हुस्न देखो ग़रीबख़ाने का रूह को आईना दिखाते हैं दर-ओ-दीवार मुस्कुराते हैं ...

दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया जब चली सर्द हवा मैं ने तुझे याद किया...

मिला जो मौक़ा तो रोक दूँगा 'जलाल' रोज़-ए-हिसाब तेरा पढूँगा रहमत का वो क़सीदा कि हँस पड़ेगा अज़ाब तेरा...

सोज़े-ग़म देके उसने ये इरशाद किया जा तुझे कश्मकश-ए-दहर से आज़ाद किया वो करें भी तो किन अल्फ़ाज में तिरा शिकवा जिनको तिरी निगाह-ए-लुत्फ़ ने बर्बाद किया...

इस दिल में तिरे हुस्न की वो जल्वागरी है जो देखे है कहता है कि शीशे में परी है...

तू घर से निकल आए तो धरती को जगा दे तू बाग़ में जिस वक़्त लचकती हुई आए सावन की तरह झूम के पौदों को झुमाए जूड़े की गिरह खोल के बेला जो उठाए...

अब ऐ ख़ुदा इनायत-ए-बेजा से फ़ाएदा मानूस हो चुके हैं ग़म-ए-जावेदाँ से हम...

फ़िक्र ही ठहरी तो दिल को फ़िक्र-ए-ख़ूबाँ क्यूँ न हो ख़ाक होना है तो ख़ाक-ए-कू-ए-जानाँ क्यूँ न हो दहर में ऐ ख़्वाजा ठहरी जब असीरी ना-गुज़ीर दिल असीर-ए-हल्क़ा-ए-गेसू-ए-पेचाँ क्यूँ न हो...

मुझ को तो होश नहीं तुम को ख़बर हो शायद लोग कहते हैं कि तुम ने मुझे बर्बाद किया...

इंसान के लहू को पियो इज़्न-ए-आम है अंगूर की शराब का पीना हराम है...

हर एक काँटे पे सुर्ख़ किरनें हर इक कली में चराग़ रौशन ख़याल में मुस्कुराने वाले तिरा तबस्सुम कहाँ नहीं है...