किसान
झुटपुटे का नर्म-रौ दरिया शफ़क़ का इज़्तिराब खेतियाँ मैदान ख़ामोशी ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब दश्त के काम-ओ-दहन को दिन की तल्ख़ी से फ़राग़ दूर दरिया के किनारे धुँदले धुँदले से चराग़ ज़ेर-ए-लब अर्ज़ ओ समा में बाहमी गुफ़्त-ओ-शुनूद मिशअल-ए-गर्दूं के बुझ जाने से इक हल्का सा दूद वुसअतें मैदान की सूरज के छुप जाने से तंग सब्ज़ा-ए-अफ़्सुर्दा पर ख़्वाब-आफ़रीं हल्का सा रंग ख़ामुशी और ख़ामुशी में सनसनाहट की सदा शाम की ख़ुनकी से गोया दिन की गर्मी का गिला अपने दामन को बराबर क़त्अ सा करता हुआ तीरगी में खेतियों के दरमियाँ का फ़ासला ख़ार-ओ-ख़स पर एक दर्द-अंगेज़ अफ़्साने की शान बाम-ए-गर्दूं पर किसी के रूठ कर जाने की शान दूब की ख़ुश्बू में शबनम की नमी से इक सुरूर चर्ख़ पर बादल ज़मीं पर तितलियाँ सर पर तुयूर पारा पारा अब्र सुर्ख़ी सुर्ख़ियों में कुछ धुआँ भूली-भटकी सी ज़मीं खोया हुआ सा आसमाँ पत्तियाँ मख़मूर कलियाँ आँख झपकाती हुई नर्म-जाँ पौदों को गोया नींद सी आती हुई ये समाँ और इक क़वी इंसान यानी काश्त-कार इर्तिक़ा का पेशवा तहज़ीब का पर्वरदिगार जिस के माथे के पसीने से पए-इज़्ज़-ओ-वक़ार करती है दरयूज़ा-ए-ताबिश कुलाह-ए-ताजदार सर-निगूँ रहती हैं जिस से क़ुव्वतें तख़रीब की जिस के बूते पर लचकती है कमर तहज़ीब की जिस की मेहनत से फबकता है तन-आसानी का बाग़ जिस की ज़ुल्मत की हथेली पर तमद्दुन का चराग़ जिस के बाज़ू की सलाबत पर नज़ाकत का मदार जिस के कस-बल पर अकड़ता है ग़ुरूर-ए-शहरयार धूप के झुलसे हुए रुख़ पर मशक़्क़त के निशाँ खेत से फेरे हुए मुँह घर की जानिब है रवाँ टोकरा सर पर बग़ल में फावड़ा तेवरी पे बल सामने बैलों की जोड़ी दोश पर मज़बूत हल कौन हल ज़ुल्मत-शिकन क़िंदील-ए-बज़्म-ए-आब-ओ-गिल क़स्र-ए-गुलशन का दरीचा सीना-ए-गीती का दिल ख़ुशनुमा शहरों का बानी राज़-ए-फ़ितरत का सुराग़ ख़ानदान-ए-तेग़-ए-जौहर-दार का चश्म-ओ-चराग़ धार पर जिस की चमन-परवर शगूफ़ों का निज़ाम शाम-ए-ज़ेर-ए-अर्ज़ को सुब्ह-ए-दरख़्शाँ का पयाम डूबता है ख़ाक में जो रूह दौड़ाता हुआ मुज़्महिल ज़र्रों की मौसीक़ी को चौंकाता हुआ जिस के छू जाते ही मिस्ल-ए-नाज़नीन-ए-मह-जबीं करवटों पर करवटें लेती है लैला-ए-ज़मीं पर्दा-हा-ए-ख़्वाब हो जाते हैं जिस से चाक चाक मुस्कुरा कर अपनी चादर को हटा देती है ख़ाक जिस की ताबिश में दरख़शानी हिलाल-ए-ईद की ख़ाक के मायूस मतला पर किरन उम्मीद की तिफ़्ल-ए-बाराँ ताजदार-ए-ख़ाक अमीर-ए-बोस्ताँ माहिर-ए-आईन-ए-क़ुदरत नाज़िम-ए-बज़्म-ए-जहाँ नाज़िर-ए-गुल पासबान-ए-रंग-ओ-बू गुलशन-पनाह नाज़-परवर लहलहाती खेतियों का बादशाह वारिस-ए-असरार-ए-फ़ितरत फ़ातेह-ए-उम्मीद-ओ-बीम महरम-ए-आसार-ए-बाराँ वाक़िफ़-ए-तब्अ-ए-नसीम सुब्ह का फ़रज़ंद ख़ुर्शीद-ए-ज़र-अफ़शाँ का अलम मेहनत-ए-पैहम का पैमाँ सख़्त-कोशी की क़सम जल्वा-ए-क़ुदरत का शाहिद हुस्न-ए-फ़ितरत का गवाह माह का दिल महर-ए-आलम-ताब का नूर-ए-निगाह क़ल्ब पर जिस के नुमायाँ नूर ओ ज़ुल्मत का निज़ाम मुन्कशिफ़ जिस की फ़िरासत पर मिज़ाज-ए-सुब्ह-ओ-शाम ख़ून है जिस की जवानी का बहार-ए-रोज़गार जिस के अश्कों पर फ़राग़त के तबस्सुम का मदार जिस की मेहनत का अरक़ तय्यार करता है शराब उड़ के जिस का रंग बिन जाता है जाँ-परवर गुलाब क़ल्ब-ए-आहन जिस के नक़्श-ए-पा से होता है रक़ीक़ शोला-ख़ू झोंकों का हमदम तेज़ किरनों का रफ़ीक़ ख़ून जिस का बिजलियों की अंजुमन में बारयाब जिस के सर पर जगमगाती है कुलाह-ए-आफ़्ताब लहर खाता है रग-ए-ख़ाशाक में जिस का लहू जिस के दिल की आँच बन जाती है सैल-ए-रंग-ओ-बू दौड़ती है रात को जिस की नज़र अफ़्लाक पर दिन को जिस की उँगलियाँ रहती हैं नब्ज़-ए-ख़ाक पर जिस की जाँकाही से टपकाती है अमृत नब्ज़-ए-ताक जिस के दम से लाला-ओ-गुल बन के इतराती है ख़ाक साज़-ए-दौलत को अता करती है नग़्मे जिस की आह माँगता है भीक ताबानी की जिस से रू-ए-शाह ख़ून जिस का दौड़ता है नब्ज़-ए-इस्तिक़्लाल में लोच भर देता है जो शहज़ादियों की चाल में जिस का मस ख़ाशाक में बनता है इक चादर महीन जिस का लोहा मान कर सोना उगलती है ज़मीन हल पे दहक़ाँ के चमकती हैं शफ़क़ की सुर्ख़ियाँ और दहक़ाँ सर झुकाए घर की जानिब है रवाँ उस सियासी रथ के पहियों पर जमाए है नज़र जिस में आ जाती है तेज़ी खेतियों को रौंद कर अपनी दौलत को जिगर पर तीर-ए-ग़म खाते हुए देखता है मलक-ए-दुश्मन की तरफ़ जाते हुए क़त्अ होती ही नहीं तारीकी-ए-हिरमाँ से राह फ़ाक़ा-कश बच्चों के धुँदले आँसुओं पर है निगाह सोचता जाता है किन आँखों से देखा जाएगा बे-रिदा बीवी का सर बच्चों का मुँह उतरा हुआ सीम-ओ-ज़र नान-ओ-नमक आब-ओ-ग़िज़ा कुछ भी नहीं घर में इक ख़ामोश मातम के सिवा कुछ भी नहीं एक दिल और ये हुजूम-ए-सोगवारी हाए हाए ये सितम ऐ संग-दिल सरमाया-दारी हाए हाए तेरी आँखों में हैं ग़लताँ वो शक़ावत के शरार जिन के आगे ख़ंजर-ए-चंगेज़ की मुड़ती है धार बेकसों के ख़ून में डूबे हुए हैं तेरे हात क्या चबा डालेगी ओ कम्बख़्त सारी काएनात ज़ुल्म और इतना कोई हद भी है इस तूफ़ान की बोटियाँ हैं तेरे जबड़ों में ग़रीब इंसान की देख कर तेरे सितम ऐ हामी-ए-अम्न-ओ-अमाँ गुर्ग रह जाते हैं दाँतों में दबा कर उँगलियाँ इद्दिआ-ए-पैरवी-ए-दीन-ओ-ईमाँ और तू देख अपनी कुहनीयाँ जिन से टपकता है लहू हाँ सँभल जा अब कि ज़हर-ए-अहल-ए-दिल के आब हैं कितने तूफ़ान तेरी कश्ती के लिए बे-ताब हैं

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