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ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-उयूब-ए-बरहनगी मैं वर्ना हर लिबास में नंग-ए-वजूद था...

फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया दिल जिगर तिश्ना-ए-फ़रियाद आया...

दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं यानी हमारे जैब में इक तार भी नहीं दिल को नियाज़-ए-हसरत-ए-दीदार कर चुके देखा तो हम में ताक़त-ए-दीदार भी नहीं...

जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे क्या ख़ूब क़यामत का है गोया कोई दिन और...

लो हम मरीज़-ए-इश्क़ के बीमार-दार हैं अच्छा अगर न हो तो मसीहा का क्या इलाज...

कहूँ जो हाल तो कहते हो मुद्दआ कहिए तुम्हीं कहो कि जो तुम यूँ कहो तो क्या कहिए न कहियो तान से फिर तुम कि हम सितमगर हैं मुझे तो ख़ू है कि जो कुछ कहो बजा कहिए...

है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से परतव से आफ़्ताब के ज़र्रे में जान है...

नहीं है ज़ख़्म कोई बख़िये के दर-ख़ुर मिरे तन में हुआ है तार-ए-अश्क-ए-यास रिश्ता चश्म-ए-सोज़न में हुई है माने-ए-ज़ौक़-ए-तमाशा ख़ाना-वीरानी कफ़-ए-सैलाब बाक़ी है ब-रंग-ए-पुम्बा रौज़न में...

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं कभी सबा को कभी नामा-बर को देखते हैं...

अज़-मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना तूती को शश-जिहत से मुक़ाबिल है आइना हैरत हुजूम-ए-लज़्ज़त-ए-ग़लतानी-ए-तपिश सीमाब-ए-बालिश ओ कमर-ए-दिल है आईना...

वो आ के ख़्वाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे वले मुझे तपिश-ए-दिल मजाल-ए-ख़्वाब तो दे करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना तिरी तरह कोई तेग़-ए-निगह को आब तो दे...

दम लिया था न क़यामत ने हनूज़ फिर तिरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया...

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना तुझ से क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद था लिखा बात के बनते ही जुदा हो जाना...

दिल से मिटना तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई का ख़याल हो गया गोश्त से नाख़ुन का जुदा हो जाना...

बंदगी में भी वो आज़ादा ओ ख़ुद-बीं हैं कि हम उल्टे फिर आए दर-ए-काबा अगर वा न हुआ...

बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में फ़रमाँ-रवा-ए-किश्वर-ए-हिन्दुस्तान है...

क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर आतिश-परस्त कहते हैं अहल-ए-जहाँ मुझे सरगर्म-ए-नाला-हा-ए-शरर-बार देख कर...

सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का वो इक गुल-दस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का बयाँ क्या कीजिए बेदाद-ए-काविश-हा-ए-मिज़गाँ का कि हर यक क़तरा-ए-ख़ूँ दाना है तस्बीह-ए-मरजाँ का...

बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे साया-ए-शाख़-ए-गुल अफ़ई नज़र आता है मुझे जौहर-ए-तेग़ ब-सर-चश्म-ए-दीगर मालूम हूँ मैं वो सब्ज़ा कि ज़हराब उगाता है मुझे...

ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे देखूँ अब मर गए पर कौन उठाता है मुझे...

सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं तकल्लुफ़ बरतरफ़ मिल जाएगा तुझ सा रक़ीब आख़िर...

हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी कुछ हमारी ख़बर नहीं आती...

होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने शाएर तो वो अच्छा है पे बदनाम बहुत है...

हमारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल-लगी के 'असद' खुला कि फ़ाएदा अर्ज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं...

लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर मैं हूँ वो क़तरा-ए-शबनम कि हो ख़ार-ए-बयाबाँ पर न छोड़ी हज़रत-ए-यूसुफ़ ने याँ भी ख़ाना-आराई सफ़ेदी दीदा-ए-याक़ूब की फिरती है ज़िंदाँ पर...

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना...

अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही...

अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफ़न के पाँव...

अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले...

बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला रखियो या रब ये दर-ए-गंजीना-ए-गौहर खुला शब हुई, फिर अंजुमन-ए-रख़्शन्दा का मंज़र खुला इस तकल्लुफ़ से कि गोया बुत-कदे का दर खुला...

तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो हज़र करो मिरे दिल से कि इस में आग दबी है दिला ये दर्द-ओ-अलम भी तो मुग़्तनिम है कि आख़िर न गिर्या-ए-सहरी है न आह-ए-नीम-शबी है...

काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना ख़ाली मुझे दिखला के ब-वक़्त-ए-सफ़र अंगुश्त...

क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन हम को तक़लीद-ए-तुनुक-ज़र्फ़ी-ए-मंसूर नहीं...

ज़-बस-कि मश्क़-ए-तमाशा जुनूँ-अलामत है कुशाद-ओ-बस्त-ए-मिज़्हा सीली-ए-नदामत है न जानूँ क्यूँकि मिटे दाग़-ए-तान-ए-बद-अहदी तुझे कि आइना भी वर्ता-ए-मलामत है...

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे...

अपना नहीं वो शेवा कि आराम से बैठें उस दर पे नहीं बार तो काबा ही को हो आए...

ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़-दाँ अपना मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहाँ अपना...

ज़बाँ पे बार-ए-ख़ुदाया ये किस का नाम आया कि मेरे नुत्क़ ने बोसे मिरी ज़बाँ के लिए...

दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया मैं और जाऊँ दर से तिरे बिन सदा किए...

रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़ अक़्ल कहती है कि वो बे-मेहर किस का आश्ना...