दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं यानी हमारे जैब में इक तार भी नहीं दिल को नियाज़-ए-हसरत-ए-दीदार कर चुके देखा तो हम में ताक़त-ए-दीदार भी नहीं...
कहूँ जो हाल तो कहते हो मुद्दआ कहिए तुम्हीं कहो कि जो तुम यूँ कहो तो क्या कहिए न कहियो तान से फिर तुम कि हम सितमगर हैं मुझे तो ख़ू है कि जो कुछ कहो बजा कहिए...
नहीं है ज़ख़्म कोई बख़िये के दर-ख़ुर मिरे तन में हुआ है तार-ए-अश्क-ए-यास रिश्ता चश्म-ए-सोज़न में हुई है माने-ए-ज़ौक़-ए-तमाशा ख़ाना-वीरानी कफ़-ए-सैलाब बाक़ी है ब-रंग-ए-पुम्बा रौज़न में...
अज़-मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना तूती को शश-जिहत से मुक़ाबिल है आइना हैरत हुजूम-ए-लज़्ज़त-ए-ग़लतानी-ए-तपिश सीमाब-ए-बालिश ओ कमर-ए-दिल है आईना...
वो आ के ख़्वाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे वले मुझे तपिश-ए-दिल मजाल-ए-ख़्वाब तो दे करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना तिरी तरह कोई तेग़-ए-निगह को आब तो दे...
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना तुझ से क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद था लिखा बात के बनते ही जुदा हो जाना...
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर आतिश-परस्त कहते हैं अहल-ए-जहाँ मुझे सरगर्म-ए-नाला-हा-ए-शरर-बार देख कर...
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का वो इक गुल-दस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का बयाँ क्या कीजिए बेदाद-ए-काविश-हा-ए-मिज़गाँ का कि हर यक क़तरा-ए-ख़ूँ दाना है तस्बीह-ए-मरजाँ का...
बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे साया-ए-शाख़-ए-गुल अफ़ई नज़र आता है मुझे जौहर-ए-तेग़ ब-सर-चश्म-ए-दीगर मालूम हूँ मैं वो सब्ज़ा कि ज़हराब उगाता है मुझे...
सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं तकल्लुफ़ बरतरफ़ मिल जाएगा तुझ सा रक़ीब आख़िर...
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर मैं हूँ वो क़तरा-ए-शबनम कि हो ख़ार-ए-बयाबाँ पर न छोड़ी हज़रत-ए-यूसुफ़ ने याँ भी ख़ाना-आराई सफ़ेदी दीदा-ए-याक़ूब की फिरती है ज़िंदाँ पर...
अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफ़न के पाँव...
बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला रखियो या रब ये दर-ए-गंजीना-ए-गौहर खुला शब हुई, फिर अंजुमन-ए-रख़्शन्दा का मंज़र खुला इस तकल्लुफ़ से कि गोया बुत-कदे का दर खुला...
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो हज़र करो मिरे दिल से कि इस में आग दबी है दिला ये दर्द-ओ-अलम भी तो मुग़्तनिम है कि आख़िर न गिर्या-ए-सहरी है न आह-ए-नीम-शबी है...
ज़-बस-कि मश्क़-ए-तमाशा जुनूँ-अलामत है कुशाद-ओ-बस्त-ए-मिज़्हा सीली-ए-नदामत है न जानूँ क्यूँकि मिटे दाग़-ए-तान-ए-बद-अहदी तुझे कि आइना भी वर्ता-ए-मलामत है...
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़-दाँ अपना मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहाँ अपना...