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धुंए के साथ ऊपर उठूँगा मैं, बच्चो जिसे तुम पढ़ते हो कार्बन दाई आक्साइड, वही बन कर छा जाऊंगा मैं, पेड़ कहीं होंगे तो और हरे हो जायेंगे,...

समुद्र के निर्जन विस्तार को देखकर वैसा ही डर लगता है जैसा रेगिस्तान को देखकर समुद्र और रेगिस्तान में अजीब साम्य है...

अरे कोई देखो मेरे आंगन में कट कर गिरा मेरा नीम गिरा मेरी सखियों का झूलना...

पैंतालिस साल पहले, जबलपुर में परसाई जी के पीछे लगभग भागते हुए मैंने सुनाई अपनी कविता और पूछा...

रात भर चलती हैं रेलें ट्रक ढोते हैं माल रात भर कारख़ाने चलते हैं कामगार रहते हैं बेहोश...

पुल पार करने से पुल पार होता है नदी पार नहीं होती नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना...

कल तुम्हें सुनसान अच्छा लग रहा था आज भीड़ें भा रही हैं तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो गोल काले पत्थरों से घिरे उस सुनसान में उस शाम...

बिजलियों को अपनी चमक दिखाने की इतनी जल्दी मचती थी कि अपनी आवाजें पीछे छोड़ आती थीं आवाजें आती थीं पीछा करतीं...

नफ़रत पैदा करती है नफ़रत और प्रेम से जनमता है प्रेम इंसान तो इंसान, धर्मग्रंथों का यह ज्ञान तो मिट्टी तक के सामने ठिठककर रह जाता है...

मरने के बाद शुरू होता है मुर्दों का अमर जीवन दोस्त आएँ या दुश्मन वे ठंडे पड़े रहते हैं...

जिन्होंने ख़ुद नहीं की अपनी यात्राएँ दूसरों की यात्रा के साधन ही बने रहे एक जूते का जीवन जिया जिन्होंने यात्रा के बाद...

शिशु लोरी के शब्द नहीं संगीत समझता है अभी वह अर्थ समझता है बाद में सीखेगा भाषा।...

तपने के बाद वे भट्टे की समाधि से निकलीं और एक वास्तुविद के स्वप्न में विलीन हो गयीं घर एक ईंटों भरी अवधारणा है ...

कोई-कोई वृक्ष बिल्कुल मनुष्यों की तरह होते हैं वे न फल देते हैं न छाया एक हरे सम्मोहन से खींचते हैं...

मुझे एक सीढ़ी की तलाश है सीढ़ी दीवार पर चढ़ने के लिए नहीं बल्कि नींव में उतरने के लिए...

बस्ती वीरानों पर यकसाँ फैल रही है घास उससे पूछा क्यों उदास हो, कुछ तो होगा खास कहाँ गए सब घोड़े, अचरज में डूबी है घास घास ने खाए घोड़े या घोड़ों ने खाई घास...

कितनी ताक़त से किनारे की तरफ़ झपटती हैं लहरें लेकिन अपनी सीमा के बाहर एक क़दम नहीं बढ़ातीं...

सूर्य से अलग होकर पृथ्वी का घूमना शुरू हुआ शुरू हुआ चुंबकत्व धातुओं की भूमिका शुरू हुई धातु युग से पहले भी था धातु युग...

आपस में सट कर फूटी कलियाँ एक दूसरे के खिलने के लिए जगह छोड़ देती हैं जगह छोड़ देती हैं गिट्टियाँ आपस में चाहे जितना सटें...

भूख से आँते सिकुड़ कर हो गईं छोटी दिमाग आ गया नजदीक बिल्कुल पेट के रोशनियों ने लौटना शुरू किया अपने स्रोतों की और पृथ्वी पड़ गई दुविधा में...

एक बार हमारी मछलियों का पानी मैला हो गया था उस रात घर में साफ़ पानी नहीं था और सुबह तक सारी मछलियाँ मर गई थीं हम यह बात भूल चुके थे...

जिसके पास चली गयी मेरी ज़मीन उसी के पास अब मेरी बारिश भी चली गयी अब जो घिरती हैं काली घटाएं...

कुछ लोग पाँवों से नहीं दिमाग़ से चलते हैं ये लोग जूते तलाशते हैं...

सींक जैसी सरल और साधारण पत्तियाँ यदि न होतीं चीड़ की तो चीड़ कभी इतने सुंदर नहीं होते नीम या पीपल जैसी आकर्षक...

जगहें खत्म हो जाती हैं जब हमारी वहॉं जाने की इच्छाएं खत्म हो जाती हैं लेकिन जिनकी इच्छाएं खत्म हो जाती हैं...

आज जब पड़ रही है कड़ाके की ठण्ड और पानी पीना तो दूर उसे छूने से बच रहे हैं लोग तो ज़रा चल कर देख लेना चाहिए...

बिजलियों को अपनी चमक दिखाने की इतनी जल्दी मचती थी कि अपनी आवाज़ें पीछे छोड़ आती थीं आवाज़ें आती थीं पीछा करतीं...

लाल रोशनी न होने का अँधेरा नीली रोशनी न होने के अँधेरे से अलग होता है इसी तरह अँधेरा...

वे पत्थरों को पहनाते हैं लंगोट पौधों को चुनरी और घाघरा पहनाते हैं वनों, पर्वतों और आकाश की ...

दाग-धब्बे साफ-सुथरी जगहों पर आना चाहते हैं जहाँ कहीं भी कुछ होने को होता है भले ही हत्या होनी हो किसी की...

बत्तखों से कम कर्कश और कोयलों से कम चालाक बल्कि भोले माने जाते कौवे बशर्ते वे किसी और रंग के होते मगर वे काले होते हैं बस यहीं से होती है उनके दुखों की शुरूआत ...

हवा के चलने से बादल कुछ इधर-उधर होते हें लेकिन कोई असर नहीं पड़ता उस लगातार काले पड़ते जा रहे आकाश पर...

हमारे शहर के कौवे केंचुए खाते हैं आपके शहर के क्या खाते हैं कोई थाली नहीं सजाता कौंवों के लिए न दूध भरी कटोरी रखता है मुंडेर पर ...

अंतिम समय जब कोई नहीं जाएगा साथ एक वृक्ष जाएगा अपनी गौरैयों-गिलहरियों से बिछुड़कर साथ जाएगा एक वृक्ष...

मुझे एक सीढ़ी की तलाश है सीढ़ी दीवार पर चढ़ने के लिए नहीं बल्कि नींव में उतरने के लिए मैं क़िले को जीतना नहीं...

तनिक देर और आसपास रहें चुप रहें, उदास रहें, जाने फिर कैसी हो जाए यह शाम। एक-एक कर पीले पत्तों का...

सेनाएँ जब सेतु से गुज़रती हैं तो सैनिक अपने क़दमों की लय तोड़ देते हैं क्योंकि इससे सेतु टूट जाने का ख़तरा उठ खड़ा होता है...

शिशु लोरी के शब्द नहीं संगीत समझता है बाद में सीखेगा भाषा अभी वह अर्थ समझता है...

वे पत्थरों को पहनाते हैं लँगोट पौधों को चुनरी और घाघरा पहनाते हैं वनों, पर्वतों और आकाश की नग्नता से होकर आक्रांत तरह तरह से अपनी अश्लीलता का उत्सव मनाते हैं...

भूख सबसे पहले दिमाग़ खाती है उसके बाद आँखें फिर जिस्म में बाक़ी बची चीज़ों को छोड़ती कुछ भी नहीं है भूख...