तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो
कल तुम्हें सुनसान अच्छा लग रहा था आज भीड़ें भा रही हैं तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो गोल काले पत्थरों से घिरे उस सुनसान में उस शाम गहरे धुँधलके में खड़े कितने डरे कँपते थरथराते अंत तक क्यों मौन थे तुम किस तिलस्मी शिकंजे के असर में थे जिगर पत्थर, आँख पत्थर, जीभ पत्थर क्यों हुई थी सच बताओ, उन क्षणों में कौन थे तुम कल तुम्हें अभिमान अच्छा लग रहा था आज भिक्षा भा रही है तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो ।

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