ग़ज़लें तो कही हैं कुछ हम ने उन से न कहा अहवाल तो क्या कल मिस्ल-ए-सितारा उभरेंगे हैं आज अगर पामाल तो क्या जीने की दुआ देने वाले ये राज़ तुझे मालूम नहीं तख़्लीक़ का इक लम्हा है बहुत बे-कार जिए सौ साल तो क्या ...
बहुत रौशन है शाम-ए-ग़म हमारी किसी की याद है हमदम हमारी ग़लत है ला-तअल्लुक़ हैं चमन से तुम्हारे फूल और शबनम हमारी...
फिर दिल से आ रही है सदा उस गली में चल शायद मिले ग़ज़ल का पता उस गली में चल कब से नहीं हुआ है कोई शेर काम का ये शेर की नहीं है फ़ज़ा उस गली में चल...
फिर कभी लौट कर न आएँगे हम तिरा शहर छोड़ जाएँगे दूर-उफ़्तादा बस्तियों में कहीं तेरी यादों से लौ लगाएँगे...
हुजूम-ए-यास में जोत आस की तिरी आवाज़ हम अहल-ए-दर्द की है ज़िंदगी तिरी आवाज़ लबों पे खिलते रहें फूल शेर-ओ-नग़्मा के फ़ज़ा में रंग बिखेरे यूँही तिरी आवाज़...
जीने का हक़ सामराज ने छीन लिया उट्ठो मरने का हक़ इस्तिमाल करो ज़िल्लत के जीने से मरना बेहतर है मिट जाओ या क़स्र-ए-सितम पामाल करो...
ये एक अहद-ए-सज़ा है जज़ा की बात न कर दुआ से हाथ उठा रख दवा की बात न कर ख़ुदा के नाम पे ज़ालिम नहीं ये ज़ुल्म रवा मुझे जो चाहे सज़ा दे ख़ुदा की बात न कर...
दिन-भर कॉफ़ी-हाउस में बैठे कुछ दुबले-पतले नक़्क़ाद बहस यही करते रहते हैं सुस्त अदब की है रफ़्तार सिर्फ़ अदब के ग़म में ग़लताँ चलने फिरने से लाचार चेहरों से ज़ाहिर होता है जैसे बरसों के बीमार...
वही हालात हैं फ़क़ीरों के दिन फिरे हैं फ़क़त वज़ीरों के अपना हल्क़ा है हल्क़ा-ए-ज़ंजीर और हल्क़े हैं सब अमीरों के...
दिल की बात लबों पर ला कर अब तक हम दुख सहते हैं हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं...
बड़े बने थे 'जालिब' साहब पिटे सड़क के बीच गोली खाई लाठी खाई गिरे सड़क के बीच कभी गिरेबाँ चाक हुआ और कभी हुआ दिल ख़ून हमें तो यूँही मिले सुख़न के सिले सड़क के बीच...
ये सोच कर न माइल-ए-फ़रियाद हम हुए आबाद कब हुए थे कि बर्बाद हम हुए होता है शाद-काम यहाँ कौन बा-ज़मीर नाशाद हम हुए तो बहुत शाद हम हुए...
चूर था ज़ख़्मों से दिल ज़ख़्मी जिगर भी हो गया उस को रोते थे कि सूना ये नगर भी हो गया लोग उसी सूरत परेशाँ हैं जिधर भी देखिए और वो कहते हैं कोह-ए-ग़म तो सर भी हो गया...
गुलशन की फ़ज़ा धुआँ धुआँ है कहते हैं बहार का समाँ है बिखरी हुई पत्तियाँ हैं गुल की टूटी हुई शाख़-ए-आशियाँ है...
आख़िर-ए-कार ये साअ'त भी क़रीब आ पहुँची तू मिरी जान किसी और की हो जाएगी कल तलक मेरा मुक़द्दर थी तिरी ज़ुल्फ़ की शाम क्या तग़य्युर है कि तू ग़ैर की कहलाएगी...
तेरे मधुर गीतों के सहारे बीते हैं दिन रेन हमारे तेरी अगर आवाज़ न होती बुझ जाती जीवन की जोती...
दिल-ए-पुर-शौक़ को पहलू में दबाए रक्खा तुझ से भी हम ने तिरा प्यार छुपाए रक्खा छोड़ इस बात को ऐ दोस्त कि तुझ से पहले हम ने किस किस को ख़यालों में बसाए रक्खा...
और सब भूल गए हर्फ़-ए-सदाक़त लिखना रह गया काम हमारा ही बग़ावत लिखना लाख कहते रहें ज़ुल्मत को न ज़ुल्मत लिखना हम ने सीखा नहीं प्यारे ब-इजाज़त लिखना...
दिल पर जो ज़ख़्म हैं वो दिखाएँ किसी को क्या अपना शरीक-ए-दर्द बनाएँ किसी को क्या हर शख़्स अपने अपने ग़मों में है मुब्तला ज़िंदाँ में अपने साथ रुलाएँ किसी को क्या...
कराहते हुए इंसान की सदा हम हैं मैं सोचता हूँ मिरी जान और क्या हम हैं जो आज तक नहीं पहुँची ख़ुदा के कानों तक सर-ए-दयार-ए-सितम आह-ए-ना-रसा हम हैं...
तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था...
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना पत्थर को गुहर दीवार को दर कर्गस को हुमा क्या लिखना इक हश्र बपा है घर में दम घुटता है गुम्बद-ए-बे-दर में इक शख़्स के हाथों मुद्दत से रुस्वा है वतन दुनिया-भर में...
देना पड़े कुछ ही हर्जाना सच ही लिखते जाना मत घबराना मत डर जाना सच ही लिखते जाना बातिल की मुँह-ज़ोर हवा से जो न कभी बुझ पाएँ वो शमएँ रौशन कर जाना सच ही लिखते जाना...
शेर से शाइरी से डरते हैं कम-नज़र रौशनी से डरते हैं लोग डरते हैं दुश्मनी से तिरी हम तिरी दोस्ती से डरते हैं...
जब कोई कली सेहन-ए-गुलिस्ताँ में खिली है शबनम मिरी आँखों में वहीं तैर गई है जिस की सर-ए-अफ़्लाक बड़ी धूम मची है आशुफ़्ता-सरी है मिरी आशुफ़्ता-सरी है...
गीत क्या क्या लिख गया क्या क्या फ़साने कह गया नाम यूँही तो नहीं उस का अदब में रह गया एक तन्हाई रही उस की अनीस-ए-ज़िंदगी कौन जाने कैसे कैसे दुख वो तन्हा सह गया...
ऐ निज़ाम-ए-कोहन के फ़रज़ंदो ऐ शब-ए-तार के जिगर-बंदो ये शब-ए-तार जावेदाँ तो नहीं ये शब-ए-तार जाने वाली है...
इस शहर-ए-ख़राबी में ग़म-ए-इश्क़ के मारे ज़िंदा हैं यही बात बड़ी बात है प्यारे ये हँसता हुआ चाँद ये पुर-नूर सितारे ताबिंदा ओ पाइंदा हैं ज़र्रों के सहारे...
शहर में हू का आलम था जिन था या रेफ़्रेनडम था क़ैद थे दीवारों में लोग बाहर शोर बहुत कम था...
शे'र होता है अब महीनों में ज़िंदगी ढल गई मशीनों में प्यार की रौशनी नहीं मिलती उन मकानों में उन मकीनों में...
दीप जिस का महल्लात ही में जले चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले वो जो साए में हर मस्लहत के पले ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को...
भुला भी दे उसे जो बात हो गई प्यारे नए चराग़ जला रात हो गई प्यारे तिरी निगाह-ए-पशेमाँ को कैसे देखूँगा कभी जो तुझ से मुलाक़ात हो गई प्यारे...
और सब भूल गए हर्फ़-ए-सदाक़त लिखना रह गया काम हमारा ही बग़ावत लिखना लाख कहते रहें ज़ुल्मत को न ज़ुल्मत लिखना हम ने सीखा नहीं प्यारे ब-इजाज़त लिखना...