कुछ और भी हैं काम हमें ऐ ग़म-ए-जानाँ
कुछ और भी हैं काम हमें ऐ ग़म-ए-जानाँ कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे

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