मता-ए-ग़ैर
आख़िर-ए-कार ये साअ'त भी क़रीब आ पहुँची तू मिरी जान किसी और की हो जाएगी कल तलक मेरा मुक़द्दर थी तिरी ज़ुल्फ़ की शाम क्या तग़य्युर है कि तू ग़ैर की कहलाएगी मेरे ग़म-ख़ाने में तू अब न कभी आएगी तेरी सहमी हुई मासूम निगाहों की ज़बाँ मेरी महबूब कोई अजनबी क्या समझेगा कुछ जो समझा भी तो इस ऐन ख़ुशी के हंगाम तेरी ख़ामोश-निगाही को हया समझेगा तेरे बहते हुए अश्कों को अदा समझेगा मेरी दम-साज़ ज़माने से चली आती हैं रेहन-ए-ग़म वक़्फ़-ए-अलम सादा-दिलों की आँखें ये नया ज़ुल्म नहीं प्यार के मत्वालों पर हम ने देखीं यूँही नम सादा-दिलों की आँखें और रो लें कोई दम सादा-दिलों की आँखें

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