सीमाब-वशी तिश्ना-लबी बा-ख़बरी है इस दश्त में गर रख़्त-ए-सफ़र है तो यही है इस शहर में इक आहू-ए-ख़ुश-चश्म से हम को कम कम ही सही निस्बत-ए-पैमाना रही है...
रात आई है बहुत रातों के ब'अद आई है देर से दूर से आई है मगर आई है मरमरीं सुब्ह के हाथों में छलकता हुआ जाम आएगा रात टूटेगी उजालों का पयाम आएगा...
अर्श की आड़ में इंसान बहुत खेल चुका ख़ून-ए-इंसान से हैवान बहुत खेल चुका मोर-ए-बे-जाँ से सुलैमान बहुत खेल चुका वक़्त है आओ दो-आलम को दिगर-गूँ कर दें...
ये किस पैकर की रंगीनी सिमट कर दिल में आती है मिरी बे-कैफ़ तंहाई को यूँ रंगीं बनाती है ये किस की जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ रुबाब-ए-दिल को छूती है ये किस के पैरहन की सरसराहट गुनगुनाती है...
क़ैद है क़ैद की मीआद नहीं जौर है जौर की फ़रियाद नहीं दाद नहीं रात है रात की ख़ामोशी है तन्हाई है दूर महबस की फ़सीलों से बहुत दूर कहीं...
राद हूँ बर्क़ हूँ बेचैन हूँ पारा हूँ मैं ख़ुद-प्रुस्तार, ख़ुद-आगाह ख़ुद-आरा हूँ मैं ख़िर्मन-ए-जौर जला दे वो शरारा हूँ मैं मेरी फ़रियाद पे अहल-ए-दुवल अंगुश्त-ब-गोश...
गुलू-ए-यज़दाँ में नोक-ए-सिनाँ भी टूटी है कशाकश-ए-दिल-ए-पैग़मबराँ भी टूटी है सराब है कि हक़ीक़त नज़ारा है कि फ़रेब यक़ीं भी टूटा है तर्ज़-ए-गुमाँ भी टूटी है...
मुझे डर है कि कहीं सर्द न हो जाए ये एहसास की रात नर्ग़े तूफ़ान-ए-हवादिस के हवस की यलग़ार ये धमाके ये बगूले सर-ए-राह जिस्म का जान का पैमान-ए-वफ़ा क्या होगा...
कहो हिन्दोस्ताँ की जय कहो हिन्दोस्ताँ की जय क़सम है ख़ून से सींचे हुए रंगीं गुलिस्ताँ की क़सम है ख़ून-ए-दहक़ाँ की क़सम ख़ून-ए-शहीदाँ की...
तुम गुलिस्ताँ से गए हो तो गुलिस्ताँ चुप है शाख़-ए-गुल खोई हुई मुर्ग़-ए-ख़ुश-इल्हाँ चुप है उफ़ुक़-ए-दिल पे दिखाई नहीं देती है धनक ग़म-ज़दा मौसम-ए-गुल अब्र-ए-बहाराँ चुप है...
हम ने हँस हँस के तिरी बज़्म में ऐ पैकर-ए-नाज़ कितनी आहों को छुपाया है तुझे क्या मालूम...
बढ़ गया बादा-ए-गुल-गूँ का मज़ा आख़िर-ए-शब और भी सुर्ख़ है रुख़्सार-ए-हया आख़िर-ए-शब मंज़िलें इश्क़ की आसाँ हुईं चलते चलते और चमका तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा आख़िर-ए-शब...
जुज़ तिरी आँखों के किन आँखों ने लुत्फ़ का हाथ रखा दर्द की पेशानी पर प्यार की आँखों से आँसू पोछे नर्मियाँ...
बेदार हुईं महर-ए-जवानी की शुआएँ पड़ने लगीं आलम की इसी सम्त निगाहें ख़्वाबीदा थे जज़्बात बदलने लगे करवट रू-ए-शरर-ए-तूर से हटने लगा घूंगट...
मोहब्बत को तुम लाख फेंक आओ गहरे कुएँ में मगर एक आवाज़ पीछा करेगी कभी चाँदनी रात का गीत बन कर कभी घुप अँधेरे की पगली हँसी बन के...
एक बोसीदा हवेली यानी फ़र्सूदा समाज ले रही है नज़अ के आलम में मुर्दों से ख़िराज इक मुसलसल गर्द में डूबे हुए सब बाम-ओ-दर जिस तरफ़ देखो अंधेरा जिस तरफ़ देखो खंडर...
दराज़ है शब-ए-ग़म सोज़-ओ-साज़ साथ रहे मुसाफ़िरो मय-ए-मीना-गुदाज़ साथ रहे क़दम क़दम पे अँधेरों का सामना है यहाँ सफ़र कठिन है दम-ए-शो'ला-साज़ साथ रहे...
फिर उसी शोख़ का ख़याल आया फिर नज़र में वो ख़ुश-जमाल आया फिर तड़पने लगा दिल-ए-मुज़्तर फिर बरसने लगा है दीदा-ए-तर...
ये तमन्ना है कि उड़ती हुई मंज़िल का ग़ुबार सुब्ह के पर्दे में याद आ गई शाम आहिस्ता...
दीप जलते हैं दिलों में कि चिता जलती है अब की दीवाली में देखेंगे कि क्या होता है...
मोम की तरह जलते रहे हम शहीदों के तन रात-भर झिलमिलाती रही शम-ए-सुब्ह-ए-वतन रात-भर जगमगाता रहा चाँद तारों का बन तिश्नगी थी मगर...
वो रूप रंग राग का पयाम ले के आ गया वो काम-देव की कमान जाम ले के आ गया वो चाँदनी की नर्म नर्म आँच में तपी हुई समुंदरों के झाग से बनी हुई जवानियाँ...
रात के हाथ में इक कासा-ए-दरयुज़ा-गरी ये चमकते हुए तारे ये दमकता हुआ चाँद भीक के नूर में माँगे के उजाले में मगन यही मल्बूस-ए-उरूसी है यही उन का कफ़न...
ख़्वाहिशें लाल पीली हरी चादरें ओढ़ कर थरथराती थिरकती हुई जाग उठीं जाग उठी दिल की इंद्र-सभा...
तेरे दीवाने तिरी चश्म ओ नज़र से पहले दार से गुज़रे तिरी राहगुज़र से पहले बज़्म से दूर वो गाता रहा तन्हा तन्हा सो गया साज़ पे सर रख के सहर से पहले...
रात के कोई बारा बजे होंगे गर्मी है सड़कों पे कोई नहीं बूढ़ा दरवेश भी जा चुका है...
आप की याद आती रही रात भर चश्म-ए-नम मुस्कुराती रही रात भर रात भर दर्द की शम्अ जलती रही ग़म की लौ थरथराती रही रात भर...
रौशन है बज़्म-ए-शोला-रुख़ाँ देखते चलें इस में वो एक नूर-ए-जहाँ देखते चलें वा हो रही है मय-कदा-ए-नीम-शब की आँख अंगड़ाई ले रहा है जहाँ देखते चलें...
तुम जो आ जाओ आज दिल्ली में ख़ुद को पाओगे अजनबी की तरह तुम फिरोगे भटकते रस्तों में एक बे-चेहरा ज़िंदगी की तरह...
वो जो छुप जाते थे काबों में सनम-ख़ानों में उन को ला ला के बिठाया गया दीवानों में फ़स्ल-ए-गुल होती थी क्या जश्न-ए-जुनूँ होता था आज कुछ भी नहीं होता है गुलिस्तानों में...