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गो सफ़ेदी मू की यूँ रौशन है जूँ आब-ए-हयात लेकिन अपनी तो इसी ज़ुल्मात से थी ज़िंदगी...

कूचे में उस के बैठना हुस्न को उस के देखना हम तो उसी को समझे हैं बाग़ भी और बहार भी...

ये हस्ब-ए-अक़्ल तो कोई नहीं सामान मिलने का मगर दुनिया से ले जावेंगे हम अरमान मिलने का अजब मुश्किल है क्या कहिए बग़ैर-अज़-जान देने के कोई नक़्शा नज़र आता नहीं आसान मिलने का...

शहर-ए-दिल आबाद था जब तक वो शहर-आरा रहा जब वो शहर-आरा गया फिर शहर-ए-दिल में क्या रहा...

सेहन-ए-गुलशन में चली फिर के हवा बिस्मिल्लाह चश्म-ए-बद-दूर बहार आई है क्या बिस्मिल्लाह मुसहफ़-ए-रुख़ पे तिरे अबरू-ए-पैवस्ता नहीं मू-क़लम से यद-ए-क़ुदरत ने लिखा बिस्मिल्लाह...

चितवन दुरुस्त सीन बजा बातें ठीक-ठीक नाज़-ओ-अदा की उस में हैं सब बातें ठीक-ठीक क्या दिल को अच्छी लगती हैं इन ख़ुश-क़दों की आह ये प्यारी प्यारी बोलियाँ ये गातें ठीक-ठीक...

हर आन तुम्हारे छुपने से ऐसा ही अगर दुख पाएँगे हम तो हार के इक दिन इस की भी तदबीर कोई ठहराएँगे हम बेज़ार करेंगे ख़ातिर को पहले तो तुम्हारी चाहत से फिर दिल को भी कुछ मिन्नत से कुछ हैबत से समझाएँगे हम...

दिया जो साक़ी ने साग़र-ए-मय दिखा के आन इक हमें लबालब अगरचे मय-कश तो हम नए थे प लब पे रखते ही पी गए सब चलते हैं देने को हम जिसे दिल वो हँस के ले ले बस अब हमें तो यही है ख़्वाहिश यही तमन्ना यही है मक़्सद यही है मतलब...

मैं हूँ पतंग-ए-काग़ज़ी डोर है उस के हाथ में चाहा इधर घटा दिया चाहा उधर बढ़ा दिया...

नज़र पड़ा इक बुत-ए-परी-वश निराली सज-धज नई अदा का जो उम्र देखो तो दस बरस की पे क़हर ओ आफ़त ग़ज़ब ख़ुदा का जो घर से निकले तो ये क़यामत कि चलते चलते क़दम क़दम पर किसी को ठोकर किसी को छक्कड़ किसी को गाली निपट लड़ाका...

आग़ोश-ए-तसव्वुर में जब मैं ने उसे मस़्का लब-हा-ए-मुबारक से इक शोर था ''बस बस'' का सौ बार हरीर उस का मस़्का निगह-ए-गुल से शबनम से कब ऐ बुलबुल पैराहन-ए-गुल मस़्का...

चली आती है अब तो हर कहीं बाज़ार की राखी सुनहरी सब्ज़ रेशम ज़र्द और गुलनार की राखी बनी है गो कि नादिर ख़ूब हर सरदार की राखी सलोनों में अजब रंगीं है उस दिलदार की राखी...

बगूले उठ चले थे और न थी कुछ देर आँधी में कि हम से यार से हो गई मुडभेड़ आँधी में जता कर ख़ाक का उड़ना दिखा कर गर्द का चक्कर वहीं हम ले चले उस गुल-बदन को घेर आँधी में...

याँ तो कुछ अपनी ख़ुशी से नहीं हम आए हुए इक ज़बरदस्त के हैं खींच के बुलवाए हुए आते ही रोए तो आगे को न रोवें क्यूँ-कर हम तो हैं रोज़-ए-तव्वुलुद ही के दुख पाए हुए...

सरसब्ज़ रखियो किश्त को ऐ चश्म तू मिरी तेरी ही आब से है बस अब आबरू मिरी...

कहते हैं याँ कि ''मुझ सा कोई मह-जबीं नहीं'' प्यारे जो हम से पूछो तो याँ क्या कहीं नहीं तुझ सा तो कोई हुस्न में याँ नाज़नीं नहीं यूँ नाज़नीं बहुत हैं ये नाज़-आफ़रीं नहीं...

बज़्म-ए-तरब वक़्त-ए-ऐश साक़ी ओ नक़्ल ओ शराब कोई इसे कुछ कहो हम तो समझते हैं ख़्वाब मजमा-ए-ख़ूबाँ वले ज़मज़मा-ए-चँग-ओ-नय कोई इसे कुछ कहो हम तो समझते हैं ख़्वाब...

सहर हम ने चमन-अंदर अजब देखा कल इक दिलबर सही क़ामत परी-पैकर मुक़त्त'अ-वज़्अ खुश-मंज़र सुख़न-बर ग़ुंचा-लब गुल-रू जबीन-ए-महर और कमाँ-अबरू दो चश्म-ए-शोख़ पुर-जादू निगह तीर और मिज़ा नश्तर...

देख ले इस चमन-ए-दहर को दिल भर के 'नज़ीर' फिर तिरा काहे को इस बाग़ में आना होगा...

हुई शक्ल अपनी ये हम-नशीं जो सनम को हम से हिजाब है कभी अश्क है कभी आह है कभी रंज है कभी ताब है ज़रा दर पे उस के पहुँच के हम जो बुलावें उस को तो दोस्तो कभी ग़ुस्सा है कभी छेड़ है कभी हीला है कभी ख़्वाब है...

तदबीर हमारे मिलने की जिस वक़्त कोई ठहराओगे तुम हम और छुपेंगे यहाँ तक जी जो ख़ूब ही फिर घबराओगे तुम बेज़ार करोगे दिल हम से या मिन्नत-ए-दर से रोकोगे वो दिल तो हमारे बस में है किस तौर उसे समझाओगे तुम...

लिख लिख के 'नज़ीर' इस ग़ज़ल-ए-ताज़ा को ख़ूबाँ रख लेंगे किताबों में ये रंग-ए-पर-ए-ताएर...

जाम न रख साक़िया शब है पड़ी और भी फिर जहाँ कट गए चार घड़ी और भी पहले ही साग़र में थे हम तो पड़े लोटते इतने में साक़ी ने दी उस से कड़ी और भी...

आज तो हमदम अज़्म है ये कुछ हम भी रस्मी काम करें क्लिक उठा कर यार को अपने नामा-ए-शौक़ अरक़ाम करें ख़ूबी से अलक़ाब लिखें आदाब भी ख़ुश-आईनी से ब'अद इस के हम तहरीर मुफ़स्सल फ़ुर्क़त के आलाम करें...

है अब तो ये धुन उस से मैं आँख लड़ा लूँगा और चूम के मुँह उस का सीने से लगा लूँगा गर तीर लगावेगा पैहम वो निगह के तो मैं उस की जराहत को हँस हँस के उठा लूँगा...

तुम्हारे हाथ से कल हम भी रो लिए साहिब जिगर के दाग़ जो धोने थे धो लिए साहिब ग़ुलाम आशिक़ ओ चाकर मुसाहिब ओ हमराज़ ग़रज़ जो था हमें होना सो हो लिए साहिब...

मैं दस्त-ओ-गरेबाँ हूँ दम-ए-बाज़-पुसीं से हमदम उसे लाता है तो ला जल्द कहीं से...

जाल में ज़र के अगर मोती का दाना होगा वो न इस दाम में आवेगा जो दाना होगा दाम-ए-ज़ुल्फ़ और जहाँ ख़ाल का दाना होगा फँस ही जावेगा ग़रज़ कैसा ही दाना होगा...

होश-ओ-ख़िरद को कर दिया तर्क और शग़्ल जो कुछ था छोड़ दिया हम ने तुम्हारी चाह में ऐ जाँ देखो तो क्या क्या छोड़ दिया कूचे में उस रश्क-ए-चमन के जा के जो बैठा फिर उस ने बाग़-ओ-चमन याँ जितने हैं सब का सैर-ओ-तमाशा छोड़ दिया...

क़स्र-ए-रंगीं से गुज़र बाग़-ओ-गुलिस्ताँ से निकल है वफ़ा-पेशा तू मत कूचा-ए-जानाँ से निकल निकहत-ए-ज़ुल्फ़ ये किस की है कि जिस के आगे हुई ख़जलत-ज़दा बू सुम्बुल-ओ-रैहाँ से निकल...

ठहरना इश्क़ के आफ़ात के सदमों में 'नज़ीर' काम मुश्किल था पर अल्लाह ने आसान किया...

न टोको दोस्तो उस की बहार नाम-ए-ख़ुदा यही अब एक है याँ गुल-एज़ार नाम-ए-ख़ुदा ये वो सनम है परी-रू कि जिस पे होती थीं हज़ार जान से परियाँ निसार नाम-ए-ख़ुदा...

ऐश कर ख़ूबाँ में ऐ दिल शादमानी फिर कहाँ शादमानी गर हुई तो ज़िंदगानी फिर कहाँ जिस क़दर पीना हो पी ले पानी उन के हाथ से आब-ए-जन्नत तो बहुत होगा ये पानी फिर कहाँ...

सर-चश्मा-ए-बक़ा से हरगिज़ न आब लाओ हज़रत ख़िज़र कहीं से जा कर शराब लाओ...

पहले नाँव गणेश का, लीजिए सीस नवाए जा से कारज सिद्ध हों, सदा महूरत लाए बोल बचन आनंद के, प्रेम, पीत और चाह सुन लो यारो, ध्यान धर, महादेव का ब्याह...

है दसहरे में भी यूँ गर फ़रहत-ओ-ज़ीनत 'नज़ीर' पर दिवाली भी अजब पाकीज़ा-तर त्यौहार है...

दूर से आए थे साक़ी सुन के मय-ख़ाने को हम बस तरसते ही चले अफ़्सोस पैमाने को हम मय भी है मीना भी है साग़र भी है साक़ी नहीं दिल में आता है लगा दें आग मय-ख़ाने को हम...

शहर-ए-दिल आबाद था जब तक वो शहर-आरा रहा जब वो शहर-आरा गया फिर शहर-ए-दिल में क्या रहा क्या रहा फिर शहर-ए-दिल में जुज़-हुजूम-ए-दर्द-ओ-ग़म थी जहाँ फ़ौज-ए-तरब वाँ लश्कर-ए-ग़म आ रहा...

जो कुछ है हुस्न में हर मह-लक़ा को ऐश-ओ-तरब वही है इश्क़ में हर मुब्तला को ऐश-ओ-तरब अगरचे अह्ल-ए-नवा ख़ुश हैं हर तरह लेकिन ज़ियादा उन से है हर बे-नवा को ऐश-ओ-तरब...

नहीं हवा में ये बू नाफ़ा-ए-ख़ुतन की सी लपट है ये तो किसी ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन की सी मैं हँस के इस लिए मुँह चूमता हूँ ग़ुंचे का कि कुछ निशानी है उस में तिरे दहन की सी...