बगूले उठ चले थे और न थी कुछ देर आँधी में
कि हम से यार से हो गई मुडभेड़ आँधी में
जता कर ख़ाक का उड़ना दिखा कर गर्द का चक्कर
वहीं हम ले चले उस गुल-बदन को घेर आँधी में
रक़ीबों ने जो देखा ये उड़ा कर ले चला उस को
पुकारे हाए ये कैसा हुआ अंधेर आँधी में
वो दौड़े तो बहुत लेकिन उन्हें आँधी में क्या सूझे
ज़ि-बस हम उस परी को लाए घर में घेर आँधी में
रक़ीबों की मैं अब ख़्वारी ख़राबी क्या लिखूँ बारे
भरी नथनों में उन के ख़ाक दस दस सेर आँधी में
'नज़ीर' आँधी में कहते हैं कि अक्सर देव होते हैं
मियाँ हम को तो ले जाती हैं परियाँ घेर आँधी में