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इतने हिजाबों पर तो ये आलम है हुस्न का क्या हाल हो जो देख लें पर्दा उठा के हम...

वो कब के आए भी और गए भी नज़र में अब तक समा रहे हैं ये चल रहे हैं, वो फिर रहे हैं, ये आ रहे हैं वो जा रहे हैं वही क़यामत है कद्द-ए-बाला वही है सूरत, वही सरापा लबों को जुम्बिश, निगह को लर्ज़िश, खड़े हैं और मुस्कुरा रहे हैं...

जान कर मिन-जुमला-ए-ख़सान-ए-मय-ख़ाना मुझे मुद्दतों रोया करेंगे जाम ओ पैमाना मुझे नंग-ए-मय-ख़ाना था मैं साक़ी ने ये क्या कर दिया पीने वाले कह उठे या पीर-ए-मय-ख़ाना मुझे...

दिल है क़दमों पर किसी के सर झुका हो या न हो बंदगी तो अपनी फ़ितरत है ख़ुदा हो या न हो...

आज क्या हाल है यारब सर-ए-महफ़िल मेरा कि निकाले लिए जाता है कोई दिल मेरा सोज़-ए-ग़म देख न बर्बाद हो हासिल मेरा दिल की तस्वीर है हर आईना-ए-दिल मेरा...

तिरे जमाल की तस्वीर खींच दूँ लेकिन ज़बाँ में आँख नहीं आँख में ज़बान नहीं...

जा और कोई ज़ब्त की दुनिया तलाश कर ऐ इश्क़ हम तो अब तिरे क़ाबिल नहीं रहे...

ऐ हुस्न-ए-यार शर्म ये क्या इंक़लाब है तुझ से ज़ियादा दर्द तिरा कामयाब है आशिक़ की बे-दिली का तग़ाफ़ुल नहीं जवाब उस का बस एक जोश-ए-मोहब्बत जवाब है...

मिरी ज़िंदगी तो गुज़री तिरे हिज्र के सहारे मिरी मौत को भी प्यारे कोई चाहिए बहाना...

इश्क़ की दास्तान है प्यारे अपनी अपनी ज़बान है प्यारे कल तक ऐ दर्द ये तपाक न था आज क्यूँ मेहरबान है प्यारे...

सीने में अगर हो दिल-ए-बेदार-ए-मोहब्बत हर साँस है पैग़मबर-ए-असरार-ए-मोहब्बत वो भी हुए जाते हैं तरफ़-दार-ए-मोहब्बत अच्छे नज़र आते नहीं आसार-ए-मोहब्बत...

दुनिया के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद अब मुझ को नहीं कुछ भी मोहब्बत के सिवा याद मैं शिकवा ब-लब था मुझे ये भी न रहा याद शायद कि मिरे भूलने वाले ने किया याद...

गुदाज़-ए-इश्क़ नहीं कम जो मैं जवाँ न रहा वही है आग मगर आग में धुआँ न रहा...

अल्लाह-रे चश्म-ए-यार की मोजिज़-बयानियां हर इक को है गुमाँ कि मुख़ातब हमीं रहे...

पहले शराब ज़ीस्त थी अब ज़ीस्त है शराब कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूँ मैं...

कोई ये कह दे गुलशन गुलशन लाख बलाएँ एक नशेमन...

मेरे दर्द में ये ख़लिश कहाँ मेरे सोज़ में ये तपिश कहाँ किसी और ही की पुकार है मिरी ज़िंदगी की सदा नहीं...

गुनाहगार के दिल से न बच के चल ज़ाहिद यहीं कहीं तिरी जन्नत भी पाई जाती है...

ज़िंदगी इक हादसा है और कैसा हादसा मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं...

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे इक आग का दरिया है और डूब के जाना है...

पहले तो हुस्न-ए-अमल हुस्न-ए-यक़ीं पैदा कर फिर इसी ख़ाक से फ़िरदौस-ए-बरीं पैदा कर यही दुनिया कि जो बुत-ख़ाना बनी जाती है इसी बुत-ख़ाने से काबे की ज़मीं पैदा कर...

आदत के ब'अद दर्द भी देने लगा मज़ा हँस हँस के आह आह किए जा रहा हूँ मैं...

दिल को सुकून रूह को आराम आ गया मौत आ गई कि दोस्त का पैग़ाम आ गया जब कोई ज़िक्र-ए-गर्दिश-ए-अय्याम आ गया बे-इख़्तियार लब पे तिरा नाम आ गया...

लाख आफ़्ताब पास से हो कर गुज़र गए हम बैठे इंतिज़ार-ए-सहर देखते रहे...

बहुत हसीन सही सोहबतें गुलों की मगर वो ज़िंदगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे...

हुस्न-ए-काफ़िर-शबाब का आलम सर से पा तक शराब का आलम अरक़-आलूद चेहरा-ए-ताबाँ शबनम-ओ-आफ़्ताब का आलम...

सभी अंदाज़-ए-हुस्न प्यारे हैं हम मगर सादगी के मारे हैं उस की रातों का इंतिक़ाम न पूछ जिस ने हँस हँस के दिन गुज़ारे हैं...

उसे हाल-ओ-क़ाल से वास्ता न ग़रज़ मक़ाम-ओ-क़याम से जिसे कोई निस्बत-ए-ख़ास हो तिरे हुस्न-ए-बर्क़-ख़िराम से मुझे दे रहे हैं तसल्लियाँ वो हर एक ताज़ा पयाम से कभी आ के मंज़र-ए-आम पर कभी हट के मंज़र-ए-आम से...

मेरी बर्बादियाँ दुरुस्त मगर तू बता क्या तुझे सवाब हुआ...

दिल को सुकून रूह को आराम आ गया मौत आ गई कि दोस्त का पैग़ाम आ गया...

वही है शोर-ए-हाए-ओ-हू, वही हुजूम-ए-मर्द-ओ-ज़न मगर वो हुस्न-ए-ज़िंदगी, मगर वो जन्नत-ए-वतन वही ज़मीं, वहीं ज़माँ, वही मकीं, वही मकाँ मगर सुरूर-ए-यक-दिली, मगर नशात-ए-अंजुमन...

नियाज़ ओ नाज़ के झगड़े मिटाए जाते हैं हम उन में और वो हम में समाए जाते हैं...

नक़ाब-ए-हुस्न-ए-दो-आलम उठाई जाती है मुझी को मेरी तजल्ली दिखाई जाती है क़दम क़दम मिरी हिम्मत बढ़ाई जाती है नफ़स नफ़स तिरी आहट सी पाई जाती है...

अहबाब मुझ से क़त-ए-तअल्लुक़ करें 'जिगर' अब आफ़्ताब-ए-ज़ीस्त लब-ए-बाम आ गया...

आप के दुश्मन रहें वक़्फ़-ए-ख़लिश सर्फ़-ए-तपिश आप क्यूँ ग़म-ख़्वारी-ए-बीमार-ए-हिज्राँ कीजिए...

हर हक़ीक़त को ब-अंदाज़-ए-तमाशा देखा ख़ूब देखा तिरे जल्वों को मगर क्या देखा जुस्तुजू में तिरी ये हासिल-ए-सौदा देखा एक इक ज़र्रे का आग़ोश-ए-तलब वा देखा...

आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था तारीक मिस्ल-ए-आह जो आँखों का नूर था क्या सुब्ह ही से शाम-ए-बला का ज़ुहूर था...

जो तूफ़ानों में पलते जा रहे हैं वही दुनिया बदलते जा रहे हैं...

इब्तिदा वो थी कि जीना था मोहब्बत में मुहाल इंतिहा ये है कि अब मरना भी मुश्किल हो गया...

शाएर-ए-फ़ितरत हूँ जब भी फ़िक्र फ़रमाता हूँ मैं रूह बन कर ज़र्रे ज़र्रे में समा जाता हूँ मैं आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ मैं जैसे हर शय में किसी शय की कमी पाता हूँ मैं...