नक़ाब-ए-हुस्न-ए-दो-आलम उठाई जाती है
नक़ाब-ए-हुस्न-ए-दो-आलम उठाई जाती है मुझी को मेरी तजल्ली दिखाई जाती है क़दम क़दम मिरी हिम्मत बढ़ाई जाती है नफ़स नफ़स तिरी आहट सी पाई जाती है वो इक नज़र जो ब-मुश्किल उठाई जाती है वही नज़र रग-ओ-पै में समाई जाती है सुकूँ है मौत यहाँ ज़ौक़-ए-जुस्तुजू के लिए ये तिश्नगी वो नहीं जो बुझाई जाती है ख़ुदा वो दर्द-ए-मोहब्बत हर एक को बख़्शे कि जिस में रूह की तस्कीन भी पाई जाती है वो मय-कदा है तिरी अंजुमन ख़ुदा रक्खे जहाँ ख़याल से पहले पिलाई जाती है तिरे हुज़ूर ये क्या वारदात-ए-क़ल्ब है आज कि जैसे चाँद पे बदली सी छाई जाती है तुझे ख़बर हो तो इतनी न फ़ुर्सत-ए-ग़म दे कि तेरी याद भी अक्सर सताई जाती है वो चीज़ कहते हैं फ़िरदौस-ए-गुमशुदा जिस को कभी कभी तिरी आँखों में पाई जाती है क़रीब मंज़िल-ए-आख़िर है अल-फ़िराक़ 'जिगर' सफ़र तमाम हुआ नींद आई जाती है

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