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मिल गया शरअ से शराब का रंग ख़ूब बदला ग़रज़ जनाब का रंग चल दिए शैख़ सुब्ह से पहले उड़ चला था ज़रा ख़िज़ाब का रंग...

अकबर दबे नहीं किसी सुल्ताँ की फ़ौज से लेकिन शहीद हो गए बीवी की नौज से...

लिपट भी जा न रुक 'अकबर' ग़ज़ब की ब्यूटी है नहीं नहीं पे न जा ये हया की ड्यूटी है...

जब मैं कहता हूँ कि या अल्लाह मेरा हाल देख हुक्म होता है कि अपना नामा-ए-आमाल देख...

सर में शौक़ का सौदा देखा देहली को हम ने भी जा देखा जो कुछ देखा अच्छा देखा क्या बतलाएँ क्या क्या देखा...

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते...

मोहब्बत का तुम से असर क्या कहूँ नज़र मिल गई दिल धड़कने लगा...

तअल्लुक़ आशिक़ ओ माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीवी मियाँ हो कर...

क्या पूछते हो 'अकबर'-ए-शोरीदा-सर का हाल ख़ुफ़िया पुलिस से पूछ रहा है कमर का हाल...

जब ग़म हुआ चढ़ा लीं दो बोतलें इकट्ठी मुल्ला की दौड़ मस्जिद 'अकबर' की दौड़ भट्टी...

बुत-कदे में शोर है 'अकबर' मुसलमाँ हो गया बे-वफ़ाओं से कोई कह दे कि हाँ हाँ हो गया...

सौ जान से हो जाऊँगा राज़ी मैं सज़ा पर पहले वो मुझे अपना गुनहगार तो कर ले...

तुम नाक चढ़ाते हो मिरी बात पे ऐ शैख़ खींचूँगी किसी रोज़ मैं अब कान तुम्हारे...

मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं...

जहाँ में हाल मिरा इस क़दर ज़बून हुआ कि मुझ को देख के बिस्मिल को भी सुकून हुआ ग़रीब दिल ने बहुत आरज़ूएँ पैदा कीं मगर नसीब का लिक्खा कि सब का ख़ून हुआ...

हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए मंज़िल-ए-हस्ती नहीं है दिल लगाने के लिए क्या मुझे ख़ुश आए ये हैरत-सरा-ए-बे-सबात होश उड़ने के लिए है जान जाने के लिए...

फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं मअरिफ़त ख़ालिक़ की आलम में बहुत दुश्वार है शहर-ए-तन में जब कि ख़ुद अपना पता मिलता नहीं...

मअ'नी को भुला देती है सूरत है तो ये है नेचर भी सबक़ सीख ले ज़ीनत है तो ये है कमरे में जो हँसती हुई आई मिस-ए-राना टीचर ने कहा इल्म की आफ़त है तो ये है...

क्या जानिए सय्यद थे हक़ आगाह कहाँ तक समझे न कि सीधी है मिरी राह कहाँ तक मंतिक़ भी तो इक चीज़ है ऐ क़िबला ओ काबा दे सकती है काम आप की वल्लाह कहाँ तक...

इश्क़-ए-बुत में कुफ़्र का मुझ को अदब करना पड़ा जो बरहमन ने कहा आख़िर वो सब करना पड़ा सब्र करना फ़ुर्क़त-ए-महबूब में समझे थे सहल खुल गया अपनी समझ का हाल जब करना पड़ा...

ज़रूरी चीज़ है इक तजरबा भी ज़िंदगानी में तुझे ये डिग्रियाँ बूढ़ों का हम-सिन कर नहीं सकतीं...

बे-तकल्लुफ़ बोसा-ए-ज़ुल्फ़-ए-चलीपा लीजिए नक़्द-ए-दिल मौजूद है फिर क्यूँ न सौदा लीजिए दिल तो पहले ले चुके अब जान के ख़्वाहाँ हैं आप इस में भी मुझ को नहीं इंकार अच्छा लीजिए...

ज़िद है उन्हें पूरा मिरा अरमाँ न करेंगे मुँह से जो नहीं निकली है अब हाँ न करेंगे क्यूँ ज़ुल्फ़ का बोसा मुझे लेने नहीं देते कहते हैं कि वल्लाह परेशाँ न करेंगे...

न रूह-ए-मज़हब न क़ल्ब-ए-आरिफ़ न शाइराना ज़बान बाक़ी ज़मीं हमारी बदल गई है अगरचे है आसमान बाक़ी शब-ए-गुज़िश्ता के साज़ ओ सामाँ के अब कहाँ हैं निशान बाक़ी ज़बान-ए-शमा-ए-सहर पे हसरत की रह गई दास्तान बाक़ी...

ख़ुशी है सब को कि ऑपरेशन में ख़ूब निश्तर ये चल रहा है किसी को इस की ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है फ़ना इसी रंग पर है क़ाइम फ़लक वही चाल चल रहा है शिकस्ता ओ मुंतशिर है वो कल जो आज साँचे में ढल रहा है...

उम्मीद टूटी हुई है मेरी जो दिल मिरा था वो मर चुका है जो ज़िंदगानी को तल्ख़ कर दे वो वक़्त मुझ पर गुज़र चुका है अगरचे सीने में साँस भी है नहीं तबीअत में जान बाक़ी अजल को है देर इक नज़र की फ़लक तो काम अपना कर चुका है...

यूँ मिरी तब्अ से होते हैं मआनी पैदा जैसे सावन की घटाओं से हो पानी पैदा क्या ग़ज़ब है निगह-ए-मस्त-ए-मिस-ए-बादा-फ़रोश शैख़ फ़ानी में हुआ रंग-ए-जवानी पैदा...

तरीक़-ए-इश्क़ में मुझ को कोई कामिल नहीं मिलता गए फ़रहाद ओ मजनूँ अब किसी से दिल नहीं मिलता भरी है अंजुमन लेकिन किसी से दिल नहीं मिलता हमीं में आ गया कुछ नक़्स या कामिल नहीं मिलता...

वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे वो फ़लक न रहा वो समाँ न रहा वो मकाँ न रहे वो मकीं न रहे वो गुलों में गुलों की सी बू न रही वो अज़ीज़ों में लुत्फ़ की ख़ू न रही वो हसीनों में रंग-ए-वफ़ा न रहा कहें और की क्या वो हमीं न रहे...

तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है बला के पेच में आया हुआ है न क्यूँकर बू-ए-ख़ूँ नामे से आए उसी जल्लाद का लिक्खा हुआ है...

साँस लेते हुए भी डरता हूँ ये न समझें कि आह करता हूँ बहर-ए-हस्ती में हूँ मिसाल-ए-हबाब मिट ही जाता हूँ जब उभरता हूँ...

फिर गई आप की दो दिन में तबीअत कैसी ये वफ़ा कैसी थी साहब ये मुरव्वत कैसी दोस्त अहबाब से हँस बोल के कट जाएगी रात रिंद-ए-आज़ाद हैं हम को शब-ए-फ़ुर्क़त कैसी...

शेख़ ने नाक़ूस के सुर में जो ख़ुद ही तान ली फिर तो यारों ने भजन गाने की खुल कर ठान ली मुद्दतों क़ाइम रहेंगी अब दिलों में गर्मियाँ मैं ने फोटो ले लिया उस ने नज़र पहचान ली...

फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं...

जो कहा मैं ने कि प्यार आता है मुझ को तुम पर हँस के कहने लगा और आप को आता क्या है...

ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता आँख उन से जो मिलती है तो क्या क्या नहीं होता जल्वा न हो मअ'नी का तो सूरत का असर क्या बुलबुल गुल-ए-तस्वीर का शैदा नहीं होता...

ये है कि झुकाता है मुख़ालिफ़ की भी गर्दन सुन लो कि कोई शय नहीं एहसान से बेहतर...

पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा लो आज हम भी साहिब-ए-औलाद हो गए...

चर्ख़ से कुछ उमीद थी ही नहीं आरज़ू मैं ने कोई की ही नहीं मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं...

मेरी तक़दीर मुआफ़िक़ न थी तदबीर के साथ खुल गई आँख निगहबाँ की भी ज़ंजीर के साथ खुल गया मुसहफ़-ए-रुख़्सार-ए-बुतान-ए-मग़रिब हो गए शैख़ भी हाज़िर नई तफ़्सीर के साथ...