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सीने से लगाएँ तुम्हें अरमान यही है जीने का मज़ा है तो मिरी जान यही है ...

जवानी की है आमद शर्म से झुक सकती हैं आँखें मगर सीने का फ़ित्ना रुक नहीं सकता उभरने से...

दिल-ए-मायूस में वो शोरिशें बरपा नहीं होतीं उम्मीदें इस क़दर टूटीं कि अब पैदा नहीं होतीं मिरी बेताबियाँ भी जुज़्व हैं इक मेरी हस्ती की ये ज़ाहिर है कि मौजें ख़ारिज अज़ दरिया नहीं होतीं...

हूँ मैं परवाना मगर शम्अ तो हो रात तो हो जान देने को हूँ मौजूद कोई बात तो हो दिल भी हाज़िर सर-ए-तस्लीम भी ख़म को मौजूद कोई मरकज़ हो कोई क़िबला-ए-हाजात तो हो...

हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए...

ग़म-ख़ाना-ए-जहाँ में वक़अत ही क्या हमारी इक ना-शुनीदा उफ़ हैं इक आह-ए-बे-असर हैं...

दर्द तो मौजूद है दिल में दवा हो या न हो बंदगी हालत से ज़ाहिर है ख़ुदा हो या न हो झूमती है शाख़-ए-गुल खिलते हैं ग़ुंचे दम-ब-दम बा-असर गुलशन में तहरीक-ए-सबा हो या न हो...

ख़ुदा अलीगढ़ के मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे भरे हुए हैं रईस-ज़ादे अमीर-ज़ादे शरीफ़-ज़ादे लतीफ़ ओ ख़ुश-वज़'अ चुस्त ओ चालाक ओ साफ़ ओ पाकीज़ा शाद-ओ-ख़ुर्रम तबीअतों में है इन की जौदत दिलों में इन के हैं नेक इरादे...

बोले कि तुझ को दीन की इस्लाह फ़र्ज़ है मैं चल दिया ये कह के कि आदाब अर्ज़ है...

मरऊब हो गए हैं विलायत से शैख़-जी अब सिर्फ़ मनअ करते हैं देसी शराब को...

बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है तू दिल में तो आता है समझ में आता...

लोग कहते हैं बदलता है ज़माना सब को मर्द वो हैं जो ज़माने को बदल देते हैं...

इन को क्या काम है मुरव्वत से अपनी रुख़ से ये मुँह न मोड़ेंगे जान शायद फ़रिश्ते छोड़ भी दें डॉक्टर फ़ीस को न छोड़ेंगे...

ख़त्म किया सबा ने रक़्स गुल पे निसार हो चुकी जोश-ए-नशात हो चुका सौत-ए-हज़ार हो चुकी रंग-ए-बनफ़शा मिट गया सुंबुल-ए-तर नहीं रहा सेहन-ए-चमन में ज़ीनत-ए-नक़्श-ओ-निगार हो चुकी...

ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता आँख उन से जो मिलती है तो क्या क्या नहीं होता...

ये मौजूदा तरीक़े राही-ए-मुल्क-ए-अदम होंगे नई तहज़ीब होगी और नए सामाँ बहम होंगे नए उनवान से ज़ीनत दिखाएँगे हसीं अपनी न ऐसा पेच ज़ुल्फ़ों में न गेसू में ये ख़म होंगे...

जिस तरफ़ उठ गई हैं आहें हैं चश्म-ए-बद-दूर क्या निगाहें हैं...

हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना...

जो वक़्त-ए-ख़त्ना मैं चीख़ा तो नाई ने कहा हँस कर मुसलमानी में ताक़त ख़ून के बहने से आती है...

रहता है इबादत में हमें मौत का खटका हम याद-ए-ख़ुदा करते हैं कर ले न ख़ुदा याद...

बूढ़ों के साथ लोग कहाँ तक वफ़ा करें बूढ़ों को भी जो मौत न आए तो क्या करें...

इश्क़ नाज़ुक-मिज़ाज है बेहद अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता...

अब तो है इश्क़-ए-बुताँ में ज़िंदगानी का मज़ा जब ख़ुदा का सामना होगा तो देखा जाएगा...

जवानी की दुआ लड़कों को ना-हक़ लोग देते हैं यही लड़के मिटाते हैं जवानी को जवाँ हो कर...

कोट और पतलून जब पहना तो मिस्टर बन गया जब कोई तक़रीर की जलसे में लीडर बन गया...

आज आराइ-ए-शगेसू-ए-दोता होती है फिर मिरी जान गिरफ़्तार-ए-बला होती है शौक़-ए-पा-बोसी-ए-जानाँ मुझे बाक़ी है हनूज़ घास जो उगती है तुर्बत पे हिना होती है...

तहसीन के लायक़ तिरा हर शेर है 'अकबर' अहबाब करें बज़्म में अब वाह कहाँ तक...

जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श का शैदा होगा उठ भी जाएगा जहाँ से तो मसीहा होगा वो तो मूसा हुआ जो तालिब-ए-दीदार हुआ फिर वो क्या होगा कि जिस ने तुम्हें देखा होगा...

शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें मज़हब के झगड़े छोड़ें तो पेशे को क्या करें...

लोग कहते हैं कि बद-नामी से बचना चाहिए कह दो बे इस के जवानी का मज़ा मिलता नहीं...

बी.ए भी पास हों मिले बी-बी भी दिल-पसंद मेहनत की है वो बात ये क़िस्मत की बात है...

दश्त-ए-ग़ुर्बत है अलालत भी है तन्हाई भी और उन सब पे फ़ुज़ूँ बादिया-पैमाई भी ख़्वाब-ए-राहत है कहाँ नींद भी आती नहीं अब बस उचट जाने को आई जो कभी आई भी...

कुछ नहीं कार-ए-फ़लक हादसा-पाशी के सिवा फ़ल्सफ़ा कुछ नहीं अल्फ़ाज़-तराशी के सिवा...

तिफ़्ल में बू आए क्या माँ बाप के अतवार की दूध तो डिब्बे का है तालीम है सरकार की...

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ...

डाल दे जान मआ'नी में वो उर्दू ये है करवटें लेने लगे तब्अ वो पहलू ये है...

मैं हूँ क्या चीज़ जो उस तर्ज़ पे जाऊँ 'अकबर' 'नासिख़' ओ 'ज़ौक़' भी जब चल न सके 'मीर' के साथ...

हर चंद बगूला मुज़्तर है इक जोश तो उस के अंदर है इक वज्द तो है इक रक़्स तो है बेचैन सही बर्बाद सही...

नई तहज़ीब से साक़ी ने ऐसी गर्म-जोशी की कि आख़िर मुस्लिमों में रूह फूंकी बादा-नोशी की तुम्हारी पालिसी का हाल कुछ खुलता नहीं साहिब हमारी पालिसी तो साफ़ है ईमाँ-फ़रोशी की...

रात उस मिस से कलीसा में हुआ मैं दो-चार हाए वो हुस्न वो शोख़ी वो नज़ाकत वो उभार ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ में वो सज-धज कि बलाएँ भी मुरीद क़दर-ए-रअना में वो चम-ख़म कि क़यामत भी शहीद...