चर्ख़ से कुछ उमीद थी ही नहीं
चर्ख़ से कुछ उमीद थी ही नहीं आरज़ू मैं ने कोई की ही नहीं मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं चाहता था बहुत सी बातों को मगर अफ़्सोस अब वो जी ही नहीं जुरअत-ए-अर्ज़-ए-हाल क्या होती नज़र-ए-लुत्फ़ उस ने की ही नहीं इस मुसीबत में दिल से क्या कहता कोई ऐसी मिसाल थी ही नहीं आप क्या जानें क़द्र-ए-या-अल्लाह जब मुसीबत कोई पड़ी ही नहीं शिर्क छोड़ा तो सब ने छोड़ दिया मेरी कोई सोसाइटी ही नहीं पूछा 'अकबर' है आदमी कैसा हँस के बोले वो आदमी ही नहीं

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