रफ़्तगाँ में जहाँ के हम भी हैं साथ उस कारवाँ के हम भी हैं शम्अ ही सर न दे गई बर्बाद कुश्ता अपनी ज़बाँ के हम भी हैं...
ग़ज़ल 'मीर' की कब पढ़ाई नहीं कि हालत मुझे ग़श की आई नहीं ज़बाँ से हमारी है सय्याद ख़ुश हमें अब उम्मीद-ए-रिहाई नहीं...
यार मेरा बहुत है यार-फ़रेब मक्र है अहद सब क़रार-फ़रेब राह रखते हैं उस के दाम से सैद है बला कोई वो शिकार-फ़रेब...
था मुस्तआर हुस्न से उस के जो नूर था ख़ुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा ज़ुहूर था हंगामा गर्म-कुन जो दिल-ए-ना-सुबूर था पैदा हर एक नाले से शोर-ए-नुशूर था...
हो गई शहर शहर रुस्वाई ऐ मिरी मौत तू भली आई यक बयाबाँ ब-रंग सौत-ए-जरस मुझ पे है बेकसी ओ तन्हाई...
कहते हैं बहार आई गुल फूल निकलते हैं हम कुंज-ए-क़फ़स में हैं दिल सीनों में जलते हैं अब एक सी बेहोशी रहती नहीं है हम को कुछ दिल भी सँभलते हैं पर देर सँभलते हैं...
कोफ़्त से जान लब पे आई है हम ने क्या चोट दिल पे खाई है लिखते रुक़ा लिखे गए दफ़्तर शौक़ ने बात क्या बढ़ाई है...
यारो मुझे मुआ'फ़ रखो मैं नशे में हूँ अब दो तो जाम ख़ाली ही दो मैं नशे में हूँ एक एक क़ुर्त दौर में यूँ ही मुझे भी दो जाम-ए-शराब पुर न करो मैं नशे में हूँ...
मुँह तका ही करे है जिस तिस का हैरती है ये आईना किस का शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ दिल हुआ है चराग़ मुफ़लिस का...
छुटता ही नहीं हो जिसे आज़ार-ए-मोहब्बत मायूस हूँ मैं भी कि हूँ बीमार-ए-मोहब्बत इम्काँ नहीं जीते-जी हो इस क़ैद से आज़ाद मर जाए तभी छूटे गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत...
मेरे संग-ए-मज़ार पर फ़रहाद रख के तेशा कहे है या उस्ताद हम से बिन मर्ग क्या जुदा हो मलाल जान के साथ है दिल-ए-नाशाद...
जब रोने बैठता हूँ तब क्या कसर रहे है रूमाल दो दो दिन तक जूँ अब्र-ए-तर रहे है आह-ए-सहर की मेरी बरछी के वसवसे से ख़ुर्शीद के मुँह ऊपर अक्सर सिपर रहे है...
रंज खींचे थे दाग़ खाए थे दिल ने सदमे बड़े उठाए थे पास-ए-नामूस-ए-इश्क़ था वर्ना कितने आँसू पलक तक आए थे...
क्या मैं भी परेशानी-ए-ख़ातिर से क़रीं था आँखें तो कहीं थीं दिल-ए-ग़म-दीदा कहीं था किस रात नज़र की है सू-ए-चश्मक-ए-अंजुम आँखों के तले अपने तो वो माह-जबीं था...
दिल से शौक़-ए-रुख़ नकू न गया झाँकना ताकना कभू न गया हर क़दम पर थी उस की मंज़िल लेक सर से सौदा-ए-जुस्तजू न गया...
अब जो इक हसरत-ए-जवानी है उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है रश्क-ए-यूसुफ़ है आह वक़्त-ए-अज़ीज़ उम्र इक बार-ए-कारवानी है...
इश्क़ में कुछ नहीं दवा से नफ़ा कुढि़ए कब तक न हो बला से नफ़ा कब तलक इन बुतों से चश्म रहे हो रहेगा बस अब ख़ुदा से नफ़ा...
शायद उस सादा ने रखा है ख़त कि हमें मुत्तसिल लिक्खा है ख़त शौक़ से बात बढ़ गई थी बहुत दफ़्तर उस को लिखें हैं क्या है ख़त...
मर रहते जो गुल बिन तो सारा ये ख़लल जाता निकला ही न जी वर्ना काँटा सा निकल जाता पैदा है कि पिन्हाँ थी आतिश-नफ़्सी मेरी मैं ज़ब्त न करता तो सब शहर ये जल जाता...
क्या कहिए क्या रक्खें हैं हम तुझ से यार ख़्वाहिश यक जान ओ सद तमन्ना यक दिल हज़ार ख़्वाहिश ले हाथ में क़फ़स टुक सय्याद चल चमन तक मुद्दत से है हमें भी सैर-ए-बहार ख़्वाहिश...