बार-हा गोर-ए-दिल झंका लाया अब के शर्त-ए-वफ़ा बजा लाया क़द्र रखती न थी मता-ए-दिल सारे आलम में मैं दिखा लाया...
क्या कहूँ तुम से मैं कि क्या है इश्क़ जान का रोग है बला है इश्क़ इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो सारे आलम में भर रहा है इश्क़...
इस अहद में इलाही मोहब्बत को क्या हुआ छोड़ा वफ़ा को उन ने मुरव्वत को क्या हुआ उम्मीद-वार-ए-वादा-ए-दीदार मर चले आते ही आते यारो क़यामत को क्या हुआ...
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या आगे आगे देखिए होता है क्या क़ाफ़िले में सुब्ह के इक शोर है यानी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या...
है ग़ज़ल 'मीर' ये 'शिफ़ाई' की हम ने भी तब्अ-आज़माई की उस के ईफ़ा-ए-अहद तक न जिए उम्र ने हम से बेवफ़ाई की...
हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया क़सम जो खाइए तो ताला-ए-ज़ुलेख़ा की अज़ीज़-ए-मिस्र का भी साहब इक ग़ुलाम लिया...
लज़्ज़त से नहीं ख़ाली जानों का खपा जाना कब ख़िज़्र ओ मसीहा ने मरने का मज़ा जाना हम जाह-ओ-हशम याँ का क्या कहिए कि क्या जाना ख़ातिम को सुलैमाँ की अंगुश्तर-ए-पा जाना...
फ़लक करने के क़ाबिल आसमाँ है कि ये पीराना-सर जाहिल जवाँ है गए उन क़ाफ़िलों से भी उठी गर्द हमारी ख़ाक क्या जानें कहाँ है...
लड़ के फिर आए डर गए शायद बिगड़े थे कुछ सँवर गए शायद सब परेशाँ दिली में शब गुज़री बाल उस के बिखर गए शायद...
मौसम-ए-गुल आया है यारो कुछ मेरी तदबीर करो यानी साया-ए-सर्व-ओ-गुल में अब मुझ को ज़ंजीर करो पेश-ए-सआयत क्या जाए है हक़ है मेरी तरफ़ सो है मैं तो चुप बैठा हूँ यकसू गर कोई तक़रीर करो...
उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद यानी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया...
क्या मुआफ़िक़ हो दवा इश्क़ के बीमार के साथ जी ही जाते नज़र आए हैं इस आज़ार के साथ रात मज्लिस में तिरी हम भी खड़े थे चुपके जैसे तस्वीर लगा दे कोई दीवार के साथ...
ये 'मीर'-ए-सितम-कुश्ता किसू वक़्त जवाँ था अंदाज़-ए-सुख़न का सबब शोर ओ फ़ुग़ाँ था जादू की पुड़ी पर्चा-ए-अबयात था उस का मुँह तकिए ग़ज़ल पढ़ते अजब सेहर-बयाँ था...
आम हुक्म-ए-शराब करता हूँ मोहतसिब को कबाब करता हूँ टुक तो रह ऐ बिना-ए-हस्ती तू तुझ को कैसा ख़राब करता हूँ...
बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो इश्क़-पेचे की तरह हुस्न गिरफ़्तारी है लुत्फ़ क्या सर्व की मानिंद गर आज़ाद रहो...
ज़ख़्म झेले दाग़ भी खाए बहुत दिल लगा कर हम तो पछताए बहुत जब न तब जागह से तुम जाया किए हम तो अपनी ओर से आए बहुत...
ताब-ए-दिल सर्फ़-ए-जुदाई हो चुकी यानी ताक़त आज़माई हो चुकी छूटता कब है असीर-ए-ख़ुश-ज़बाँ जीते जी अपनी रिहाई हो चुकी...
अश्क आँखों में कब नहीं आता लहू आता है जब नहीं आता होश जाता नहीं रहा लेकिन जब वो आता है तब नहीं आता...
अंदोह से हुई न रिहाई तमाम शब मुझ दिल-ज़दा को नींद न आई तमाम शब जब मैं शुरू क़िस्सा किया आँखें खोल दीं यानी थी मुझ को चश्म-नुमाई तमाम शब...
काश उठें हम भी गुनहगारों के बीच हों जो रहमत के सज़ा-वारों के बीच जी सदा उन अबरूओं ही में रहा की बसर हम उम्र तलवारों के बीच...