मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात...
हुई फिर इमतिहान-ए-इशक़ की तदबीर बिस्मिल्लाह हर इक जानिब मचा कुहराम-ए-दार-ओ-गीर बिस्मिल्लाह गली-कूचों में बिखरी शोरिश-ए-ज़ंजीर बिस्मिल्लाह दर-ए-ज़िंदाँ पे बुलवाए गए फिर से जुनूँ वाले...
हम ने सब शेर में सँवारे थे हम से जितने सुख़न तुम्हारे थे रंग-ओ-ख़ुशबू के हुस्न-ओ-ख़ूबी के तुम से थे जितने इस्तिआरे थे...
दर्द थम जाएगा ग़म न कर, ग़म न कर यार लौट आएँगे, दिल ठहर जाएगा, ग़म न कर, ग़म न कर ज़ख़्म भर जाएगा ग़म न कर, ग़म न कर...
कब याद में तेरा साथ नहीं कब हात में तेरा हात नहीं सद-शुक्र कि अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं मुश्किल हैं अगर हालात वहाँ दिल बेच आएँ जाँ दे आएँ दिल वालो कूचा-ए-जानाँ में क्या ऐसे भी हालात नहीं...
सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं हम लोग सुर्ख़-रू हैं कि मंज़िल से आए हैं शम-ए-नज़र ख़याल के अंजुम जिगर के दाग़ जितने चराग़ हैं तिरी महफ़िल से आए हैं...
तीरगी जाल है और भाला है नूर इक शिकारी है दिन इक शिकारी है रात जग समुंदर है जिस में किनारे से दूर मछलियों की तरह इब्न-ए-आदम की ज़ात...
गुल हुई जाती है अफ़्सुर्दा सुलगती हुई शाम धुल के निकलेगी अभी चश्मा-ए-महताब से रात और मुश्ताक़ निगाहों की सुनी जाएगी और उन हाथों से मस होंगे ये तरसे हुए हात...
तेरे होंटों के फूलों की चाहत में हम दार की ख़ुश्क टहनी पे वारे गए तेरे हातों की शम्ओं की हसरत में हम नीम-तारीक राहों में मारे गए...
हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे असबाब-ए-ग़म-ए-इश्क़ बहम करते रहेंगे वीरानी-ए-दौराँ पे करम करते रहेंगे...
तुम मिरे पास रहो मिरे क़ातिल, मिरे दिलदार मिरे पास रहो जिस घड़ी रात चले, आसमानों का लहू पी के सियह रात चले...
ये देस मुफ़लिस-ओ-नादार कज-कुलाहों का ये देस बे-ज़र-ओ-दीनार बादशाहों का कि जिस की ख़ाक में क़ुदरत है कीमियाई की ये नायबान-ए-ख़ुदावंद-ए-अर्ज़ का मस्कन...
आसमाँ की गोद में दम तोड़ता है तिफ़्ल-ए-अब्र जम रहा है अब्र के होंटों पे ख़ूँ-आलूद कफ़ बुझते बुझते बुझ गई है अर्श के हुजरों में आग धीरे धीरे बिछ रही है मातमी तारों की सफ़...
मौत अपनी न अमल अपना न जीना अपना खो गया शोरिश-ए-गीती में क़रीना अपना नाख़ुदा दूर हवा तेज़, क़रीं काम-ए-नहंग वक़्त है फेंक दे लहरों में सफ़ीना अपना...
किसी के दस्त-ए-इनायत ने कुंज-ए-ज़िंदाँ में किया है आज अजब दिल-नवाज़ बंद-ओ-बस्त महक रही है फ़ज़ा ज़ुल्फ़-ए-यार की सूरत हवा है गर्मी-ए-ख़ुशबू से इस तरह सरमस्त...
रहा न कुछ भी ज़माने में जब नज़र को पसंद तिरी नज़र से किया रिश्ता-ए-नज़र पैवंद तिरे जमाल से हर सुब्ह पर वज़ू लाज़िम हर एक शब तिरे दर पर सुजूद की पाबंद...
ग़म है इक कैफ़ में फ़ज़ाए-हयात ख़ामुशी सज्दा-ए-नियाज़ में है हुस्न-ए-मासूम ख़्वाब-ए-नाज़ में है ऐ कि तू रंग-ओ-बू का तूफ़ाँ है...
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले...
किए आरज़ू से पैमाँ जो मआल तक न पहुँचे शब-ओ-रोज़-ए-आश्नाई मह ओ साल तक न पहुँचे वो नज़र बहम न पहुँची कि मुहीत-ए-हुस्न करते तिरी दीद के वसीले ख़द-ओ-ख़ाल तक न पहुँचे...
फिर आईना-ए-आलम शायद कि निखर जाए फिर अपनी नज़र शायद ता-हद्द-ए-नज़र जाए सहरा पे लगे पहरे और क़ुफ़्ल पड़े बन पर अब शहर-बदर हो कर दीवाना किधर जाए...
वो अहद-ए-ग़म की काहश-हा-ए-बे-हासिल को क्या समझे जो उन की मुख़्तसर रूदाद भी सब्र-आज़मा समझे यहाँ वाबस्तगी वाँ बरहमी क्या जानिए क्यूँ है न हम अपनी नज़र समझे न हम उन की अदा समझे...
शाएर का जशन-ए-सालगिरह है शराब ला मंसब ख़िताब रुत्बा उन्हें क्या नहीं मिला बस नक़्स है तो इतना कि मम्दूह ने कोई मिस्रा किसी किताब के शायाँ नहीं लिखा...
गर किसी तौर हर इक उल्फ़त-ए-जानाँ का ख़याल शेर में ढल के सना-ए-रुख़-ए-जानाँ न बने फिर तो यूँ हो कि मिरे शेर-ओ-सुख़न का दफ़्तर तूल में तूल-ए-शब-ए-हिज्र का अफ़्साना बने...
किस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी शायद इस तरह कि जिस तौर कभी अव्वल-ए-शब बे-तलब पहले-पहल मर्हमत-ए-बोसा-ए-लब जिस से खुलने लगें हर सम्त तिलिस्मात के दर...
न अब रक़ीब न नासेह न ग़म-गुसार कोई तुम आश्ना थे तो थीं आश्नाइयाँ क्या क्या जुदा थे हम तो मयस्सर थीं क़ुर्बतें कितनी बहम हुए तो पड़ी हैं जुदाइयाँ क्या क्या...
कहीं तो कारवान-ए-दर्द की मंज़िल ठहर जाए किनारे आ लगे उम्र-ए-रवाँ या दिल ठहर जाए अमाँ कैसी कि मौज-ए-ख़ूँ अभी सर से नहीं गुज़री गुज़र जाए तो शायद बाज़ू-ए-क़ातिल ठहर जाए...