किए आरज़ू से पैमाँ जो मआल तक न पहुँचे
किए आरज़ू से पैमाँ जो मआल तक न पहुँचे शब-ओ-रोज़-ए-आश्नाई मह ओ साल तक न पहुँचे वो नज़र बहम न पहुँची कि मुहीत-ए-हुस्न करते तिरी दीद के वसीले ख़द-ओ-ख़ाल तक न पहुँचे वही चश्मा-ए-बक़ा था जिसे सब सराब समझे वही ख़्वाब मो'तबर थे जो ख़याल तक न पहुँचे तिरा लुत्फ़ वजह-ए-तस्कीं न क़रार शरह-ए-ग़म से कि हैं दिल में वो गिले भी जो मलाल तक न पहुँचे कोई यार जाँ से गुज़रा कोई होश से न गुज़रा ये नदीम-ए-यक-दो-साग़र मिरे हाल तक न पहुँचे चलो 'फ़ैज़' दिल जलाएँ करें फिर से अर्ज़-ए-जानाँ वो सुख़न जो लब तक आए पे सवाल तक न पहुँचे

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