फिर आईना-ए-आलम शायद कि निखर जाए
फिर आईना-ए-आलम शायद कि निखर जाए फिर अपनी नज़र शायद ता-हद्द-ए-नज़र जाए सहरा पे लगे पहरे और क़ुफ़्ल पड़े बन पर अब शहर-बदर हो कर दीवाना किधर जाए ख़ाक-ए-रह-ए-जानाँ पर कुछ ख़ूँ था गिरौ अपना इस फ़स्ल में मुमकिन है ये क़र्ज़ उतर जाए देख आएँ चलो हम भी जिस बज़्म में सुनते हैं जो ख़ंदा-ब-लब आए वो ख़ाक-बसर जाए या ख़ौफ़ से दर-गुज़रें या जाँ से गुज़र जाएँ मरना है कि जीना है इक बात ठहर जाए

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