ईरानी तलबा के नाम
ये कौन सख़ी हैं जिन के लहू की अशरफ़ियाँ छन-छन, छन-छन, धरती के पैहम प्यासे कश्कोल में ढलती जाती हैं कश्कोल को भरती हैं ये कौन जवाँ हैं अर्ज़-ए-अजम ये लख-लुट जिन के जिस्मों की भरपूर जवानी का कुंदन यूँ ख़ाक में रेज़ा रेज़ा है यूँ कूचा कूचा बिखरा है ऐ अर्ज़-ए-अजम, ऐ अर्ज़-ए-अजम! क्यूँ नोच के हँस हँस फेंक दिए उन आँखों ने अपने नीलम उन होंटों ने अपने मर्जां उन हाथों की ''बे-कल चाँदी किस काम आई किस हाथ लगी'' ऐ पूछने वाले परदेसी ये तिफ़्ल ओ जवाँ उस नूर के नौ-रस मोती हैं उस आग की कच्ची कलियाँ हैं जिस मीठे नूर और कड़वी आग से ज़ुल्म की अंधी रात में फूटा सुब्ह-ए-बग़ावत का गुलशन और सुब्ह हुई मन-मन, तन-तन, उन जिस्मों का चाँदी सोना उन चेहरों के नीलम, मर्जां, जग-मग जग-मग रुख़शां रुख़शां जो देखना चाहे परदेसी पास आए देखे जी भर कर ये ज़ीस्त की रानी का झूमर ये अम्न की देवी का कंगन!

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