जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी गुफ़्ता-ए-'ग़ालिब' एक बार पढ़ के उसे सुना कि यूँ...
है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न आज़ुर्दा-लबों से तंग आए हैं हम ऐसे ख़ुशामद-तलबों से है दौर-ए-क़दह वज्ह-ए-परेशानी-ए-सहबा यक-बार लगा दो ख़ुम-ए-मय मेरे लबों से...
दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई दोनों को इक अदा में रज़ा-मंद कर गई शक़ हो गया है सीना ख़ुशा लज़्ज़त-ए-फ़राग़ तकलीफ़-ए-पर्दा-दारी-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर गई...
ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा सुन लेते हैं गो ज़िक्र हमारा नहीं करते 'ग़ालिब' तिरा अहवाल सुना देंगे हम उन को वो सुन के बुला लें ये इजारा नहीं करते...
मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें हैं जम्अ सुवैदा-ए-दिल-ए-चश्म में आहें किस दिल पे है अज़्म-ए-सफ़-ए-मिज़्गान-ए-ख़ुद-आरा आईने के पायाब से उतरी हैं सिपाहें...
फिर कुछ इक दिल को बे-क़रारी है सीना जुया-ए-ज़ख़्म-ए-कारी है फिर जिगर खोदने लगा नाख़ुन आमद-ए-फ़स्ल-ए-लाला-कारी है...
हम रश्क को अपने भी गवारा नहीं करते मरते हैं वले उन की तमन्ना नहीं करते दर-पर्दा उन्हें ग़ैर से है रब्त-ए-निहानी ज़ाहिर का ये पर्दा है कि पर्दा नहीं करते...
कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है बर्क़-ए-ख़िर्मन-ए-राहत ख़ून-ए-गर्म-ए-दहक़ाँ है ग़ुंचा ता शगुफ़्तन-हा बर्ग-ए-आफ़ियत मालूम बा-वजूद-ए-दिल-जमई ख़्वाब-ए-गुल परेशाँ है...
बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार निगाह-ए-शौक़ को हैं बाल-ओ-पर दर-ओ-दीवार वुफ़ूर-ए-अश्क ने काशाने का किया ये रंग कि हो गए मिरे दीवार-ओ-दर दर-ओ-दीवार...
गई वो बात कि हो गुफ़्तुगू तो क्यूँकर हो कहे से कुछ न हुआ फिर कहो तो क्यूँकर हो हमारे ज़ेहन में इस फ़िक्र का है नाम विसाल कि गर न हो तो कहाँ जाएँ हो तो क्यूँकर हो...
हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है कि तार-ए-दामन ओ तार-ए-नज़र में फ़र्क़ मुश्किल है रफ़ू-ए-ज़ख्म से मतलब है लज़्ज़त ज़ख़्म-ए-सोज़न की समझियो मत कि पास-ए-दर्द से दीवाना ग़ाफ़िल है...
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता हुआ जब ग़म से यूँ बे-हिस तो ग़म क्या सर के कटने का न होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पर धरा होता...
जिस जा नसीम शाना-कश-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार है नाफ़ा दिमाग़-ए-आहुव-ए-दश्त-ए-ततार है किस का सुराग़ जल्वा है हैरत को ऐ ख़ुदा आईना फ़र्श-ए-शश-जहत-ए-इंतिज़ार है...
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता...
सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर मिरी क़िस्मत में यूँ तस्वीर है शब-हा-ए-हिज्राँ की कहूँ क्या गर्म-जोशी मय-कशी में शोला-रूयाँ की कि शम-ए-ख़ाना-ए-दिल आतिश-ए-मय से फ़रोज़ाँ की...
रहम कर ज़ालिम कि क्या बूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है नब्ज़-ए-बीमार-ए-वफ़ा दूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है दिल-लगी की आरज़ू बेचैन रखती है हमें वर्ना याँ बे-रौनक़ी सूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है...
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से कहने जाते तो हैं पर देखिए क्या कहते हैं...
जो न नक़्द-ए-दाग़-ए-दिल की करे शोला पासबानी तो फ़सुर्दगी निहाँ है ब-कमीन-ए-बे-ज़बानी मुझे उस से क्या तवक़्क़ो ब-ज़माना-ए-जवानी कभी कूदकी में जिस ने न सुनी मिरी कहानी...
देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है मैं उसे देखूँ भला कब मुझ से देखा जाए है हाथ धो दिल से यही गर्मी गर अंदेशे में है आबगीना तुन्दि-ए-सहबा से पिघला जाए है...
मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ गर मैं ने की थी तौबा साक़ी को क्या हुआ था है एक तीर जिस में दोनों छिदे पड़े हैं वो दिन गए कि अपना दिल से जिगर जुदा था...
वारस्ता उस से हैं कि मोहब्बत ही क्यूँ न हो कीजे हमारे साथ अदावत ही क्यूँ न हो छोड़ा न मुझ में ज़ोफ़ ने रंग इख़्तिलात का है दिल पे बार नक़्श-ए-मोहब्बत ही क्यूँ न हो...
नींद उस की है दिमाग़ उस का है रातें उस की हैं तेरी ज़ुल्फ़ें जिस के बाज़ू पर परेशाँ हो गईं...