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(1) मैंने भी देखे हैं यहाँ हर रोज़ अलग-अलग चेहरे...

मेरा विश्वास है तुम्हारी तमाम कोशिशों के बाद भी शब्द ज़िन्दा रहेंगे समय की सीढ़ियों पर...

दीवार बनकर खड़े हैं दुःख चुभते हैं विषैले शूल की तरह रिसता है लहू जल-प्रपात-सा थकी-हारी देह से ...

कुश्ती कोई भी लड़े ढोल बजाता है सिमरू ही जिसके सधे हाथ भर देते हैं जोश पूरे दंगल में ...

जब भी देखता हूँ मैं झाड़ू या गन्दगी से भरी बाल्टी कनस्तर किसी हाथ में ...

तुमने बना लिया जिस नफ़रत को अपना कवच विध्वंस बनकर खड़ी होगी रू-ब-रू एक दिन तब नहीं बचेंगी शेष आले में सहेजकर रखी बासी रोटियाँ...

मैंने दुख झेले सहे कष्‍ट पीढ़ी-दर-पीढ़ी इतने फिर भी देख नहीं पाए तुम मेरे उत्‍पीड़न को...

अरे, मेरे प्रताड़ित पुरखों तुम्हारी स्मृतियाँ इस बंजर धरती के सीने पर अभी ज़िन्दा हैं ...

जब भी मैंने किसी घने वृक्ष की छाँव में बैठकर घड़ी भर सुस्‍ता लेना चाहा मेरे कानों में...

यदि तुम्हें, धकेलकर गांव से बाहर कर दिया जाय पानी तक न लेने दिया जाय कुएं से दुत्कारा फटकारा जाय चिल-चिलाती दोपहर में...

रात गहरी और काली है अकालग्रस्त त्रासदी जैसी जहाँ हज़ारों शब्द दफ़न हैं इतने गहरे...

जब भी चाहा छूना मन्दिर के गर्भ-गृह में किसी पत्थर को या उकेरे गए भित्ति-चित्रों को...

तुम महान हो तुम्हारी जिह्वा से निकला हर शब्द पवित्र है मान बैठा था मैं तुमने पढ़ रखी हैं ढेरों पुस्तकें...

हिकारत भरे शब्द चुभते हैं त्वचा में सुई की नोक की तरह जब वे कहते हैं--...

घर से निकल रहा था दफ़्तर के लिए सीढ़ियाँ उतरते हुए लगा जैसे पीछे से किसी ने पुकारा...

रौशनी के उस पार खुली चौड़ी सड़क से दूर शहर के किनारे गन्दे नाले के पास...

मैंने दुःख झेले सहे कष्‍ट पीढ़ी-दर-पीढ़ी इतने फिर भी देख नहीं पाये तुम मेरे उत्‍पीडन को...

चूल्‍हा मिट्टी का मिट्टी तालाब की तालाब ठाकुर का । भूख रोटी की...

उन्हें डर है बंजर धरती का सीना चीर कर अन्न उगा देने वाले साँवले खुरदरे हाथ उतनी ही दक्षता से जुट जाएँगे...

पहाड़ खड़ा है स्थिर सिर उठाए जिसे देखता हूँ हर रोज़ आत्मीयता से...

चिड़िया उदास है -- जंगल के खालीपन पर बच्चे उदास हैं -- भव्य अट्टालिकाओं के...

वह मैं हूँ मुँह-अँधेरे बुहारी गई सड़क में जो चमक है-- वह मैं हूँ !...

ठंडे कमरों में बैठकर पसीने पर लिखना कविता ठीक वैसा ही है जैसे राजधानी में उगाना फ़सल...

स्याह रात में चमकता जुगनू जैसे उग आया अँधेरे के बीच...

दोस्‍तो ! बिता दिए हमने हज़ारों वर्ष इस इंतज़ार में कि भयानक त्रासदी का युग...

पथरीली चट्टान पर हथौड़े की चोट चिंगारी को जन्‍म देती है जो गाहे-बगाहे आग बन जाती है...