कविता और फ़सल
ठंडे कमरों में बैठकर पसीने पर लिखना कविता ठीक वैसा ही है जैसे राजधानी में उगाना फ़सल कोरे काग़ज़ों पर । फ़सल हो या कविता पसीने की पहचान है दोनों ही । बिना पसीने की फ़सल या कविता बेमानी है आदमी के विरूद्ध आदमी का षडयंत्र-- अंधे गहरे समंदर सरीखा जिसकी तलहटी में असंख्‍य हाथ नाख़ूनों को तेज़ कर रहे हैं पोंछ रहे हैं उँगलियों पर लगे ताज़ा रक्‍त के धब्‍बे । धब्‍बे : जिनका स्‍वर नहीं पहुँचता वातानुकूलित कमरों तक और न ही पहुँच पाती है कविता ही जो सुना सके पसीने का महाकाव्‍य जिसे हरिया लिखता है चिलचिलाती दुपहर में धरती के सीने पर फ़सल की शक्‍ल में । (सितम्बर, 1986)

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