वंशज
दीवार बनकर खड़े हैं दुःख चुभते हैं विषैले शूल की तरह रिसता है लहू जल-प्रपात-सा थकी-हारी देह से 'नियति' के बहाने   अच्छा प्रपंच रचा है तुमने ज़ख़्मों से पटे चेहरे अब पहचाने नहीं जाते अरे, अब तो मान लो किस सभ्यता के वंशज हो तुम!

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