दिल चीज़ क्या है आप मिरी जान लीजिए बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए इस अंजुमन में आप को आना है बार बार दीवार-ओ-दर को ग़ौर से पहचान लीजिए...
तुझ से बिछड़े हैं तो अब किस से मिलाती है हमें ज़िंदगी देखिए क्या रंग दिखाती है हमें मरकज़-ए-दीदा-ओ-दिल तेरा तसव्वुर था कभी आज इस बात पे कितनी हँसी आती है हमें...
बहते दरियाओं में पानी की कमी देखना है उम्र भर मुझ को यही तिश्ना-लबी देखना है रंज दिल को है कि जी भर के नहीं देखा तुझे ख़ौफ़ इस का था जो आइंदा कभी देखना है...
मगर बे-ज़ाइक़ा होंटों से तुम ने सख़्त चट्टानों को चूमा था वो उन की खुर्दुराहट नोक निकली छातियाँ तेज़ाबियत नमकीन काई...
यहाँ क्या है बरहना तीरगी है ख़ला है आहटें हैं तिश्नगी है यहाँ जिस के लिए आए थे वो शय किसी क़ीमत पे भी मिलती नहीं है...
हवा के पाँव इस ज़ीने तलक आए थे लगता है दिए की लौ पे ये बोसा उसी का है मिरी गर्दन से सीने तक ख़राशों की लकीरों का ये गुल-दस्ता...
ज़ख़्मों को रफ़ू कर लें दिल शाद करें फिर से ख़्वाबों की कोई दुनिया आबाद करें फिर से मुद्दत हुई जीने का एहसास नहीं होता दिल उन से तक़ाज़ा कर बेदाद करें फिर से...
हुजूम-ए-दर्द मिला ज़िंदगी अज़ाब हुई दिल ओ निगाह की साज़िश थी कामयाब हुई तुम्हारी हिज्र-नवाज़ी पे हर्फ़ आएगा हमारी मोनिस ओ हमदम अगर शराब हुई...
बे-ताब हैं और इश्क़ का दावा नहीं हम को आवारा हैं और दश्त का सौदा नहीं हम को ग़ैरों की मोहब्बत पे यक़ीं आने लगा है यारों से अगरचे कोई शिकवा नहीं हम को...
अँधेरी रात की इस रहगुज़र पर हमारे साथ कोई और भी था उफ़ुक़ की सम्त वो भी तक रहा था उसे भी कुछ दिखाई दे रहा था...
तेरे सिवा भी कोई मुझे याद आने वाला था मैं वर्ना यूँ हिज्र से कब घबराने वाला था जान-बूझ कर समझ कर मैं ने भुला दिया हर वो क़िस्सा जो दिल को बहलाने वाला था...
ये क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गए होते इक पल भी अगर भूल से हम सो गए होते ऐ शहर तिरा नाम-ओ-निशाँ भी नहीं होता जो हादसे होने थे अगर हो गए होते...
आँधियाँ आती थीं लेकिन कभी ऐसा न हुआ ख़ौफ़ के मारे जुदा शाख़ से पत्ता न हुआ रूह ने पैरहन-ए-जिस्म बदल भी डाला ये अलग बात किसी बज़्म में चर्चा न हुआ...
अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो मैं अपने साए से कल रात डर गया यारो हर एक नक़्श तमन्ना का हो गया धुँदला हर एक ज़ख़्म मिरे दिल का भर गया यारो...
मैं कोरे काग़ज़ पर लिखूँ फिर एक काली नज़्म अलख जगाते सन्नाटों से फिर से सजाऊँ बज़्म गद्दर अमरूदों की ख़ुश्बू पागल कर जाए मेरी इन ख़ाली आँखों को जल-थल कर जाए...
ये क्या हुआ कि तबीअत सँभलती जाती है तिरे बग़ैर भी ये रात ढलती जाती है उस इक उफ़ुक़ पे अभी तक है ए'तिबार मुझे मगर निगाह-ए-मनाज़िर बदलती जाती है...
हर ख़्वाब के मकाँ को मिस्मार कर दिया है बेहतर दिनों का आना दुश्वार कर दिया है वो दश्त हो कि बस्ती साया सुकूत का है जादू असर सुख़न को बेकार कर दिया है...
वो दूर बुलंद पहाड़ों पर मल्बूस फ़रिश्तों का पहने ख़्वाबों के मुहीब दरख़्तों की शाख़ों पर झूला डाले हुए...
वो अँधेरी रात की चाप थी जो गुज़र गई कभी खिड़कियों पे न झुक सकी किसी रास्ते में न रुक सकी...
ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है हद्द-ए-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है हर एक जिस्म रूह के अज़ाब से निढाल है हर एक आँख शबनमी हर एक दिल फ़िगार है...