निकला है चाँद शब की पज़ीराई के लिए ये उज़्र कम है अंजुमन-आराई के लिए था बोलना तो हो गए ख़ामोश हम सभी क्या कुछ किया है शोहरत ओ रुस्वाई के लिए...
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँडे पत्थर की तरह बे-हिस ओ बे-जान सा क्यूँ है...
हवा चले वरक़-ए-आरज़ू पलट जाए तुलू हो कोई चेहरा तो धुँद छट जाए यही है वक़्त कि ख़्वाबों के बादबाँ खोलो कहीं न फिर से नदी आँसुओं की घट जाए...
वो कौन था वो कौन था तिलिस्म-ए-शहर-ए-आरज़ू जो तोड़ कर चला गया हर एक तार रूह का झिंझोड़ कर चला गया मुझे ख़ला के बाज़ुओं में छोड़ कर चला गया...
दिल परेशाँ हो मगर आँख में हैरानी न हो ख़्वाब देखो कि हक़ीक़त से पशीमानी न हो क्या हुआ अहल-ए-जुनूँ को कि दुआ माँगते हैं शहर में शोर न हो दश्त में वीरानी न हो...
दिन के सहरा से जब बनी जाँ पर एक मुबहम सा आसरा पा कर हम चले आए इस तरफ़ और अब रात के इस अथाह दरिया में...
तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा देख के ये हैराँ है कि सारा शहर मिरे ख़्वाब से परेशाँ है मैं इस सफ़र में किसी मोड़ पर नहीं ठहरा रहा ख़याल कि वो वादी-ए-ग़ज़ालाँ है...
इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं इन आँखों से वाबस्ता अफ़्साने हज़ारों हैं इक तुम ही नहीं तन्हा उल्फ़त में मिरी रुस्वा इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं...
शम-ए-दिल शम-ए-तमन्ना न जला मान भी जा तेज़ आँधी है मुख़ालिफ़ है हवा मान भी जा ऐसी दुनिया में जुनूँ ऐसे ज़माने में वफ़ा इस तरह ख़ुद को तमाशा न बना मान भी जा...
किस फ़िक्र किस ख़याल में खोया हुआ सा है दिल आज तेरी याद को भूला हुआ सा है गुलशन में इस तरह से कब आई थी फ़स्ल-ए-गुल हर फूल अपनी शाख़ से टूटा हुआ सा है...
जहाँ पे तेरी कमी भी न हो सके महसूस तलाश ही रही आँखों को ऐसे मंज़र की हमें तो ख़ुद नहीं मालूम क्या किसी से कहें कि तुझ से मिलने की कोशिश न क्यूँ बिछड़ कर की...
कहने को तो हर बात कही तेरे मुक़ाबिल लेकिन वो फ़साना जो मिरे दिल पे रक़म है महरूमी का एहसास मुझे किस लिए होता हासिल है जो मुझ को कहाँ दुनिया को बहम है...
बारिशें फिर ज़मीनों से नाराज़ हैं और समुंदर सभी ख़ुश्क हैं खुरदुरी सख़्त बंजर ज़मीनों में क्या बोइए और क्या काटिए आँख की ओस के चंद क़तरों से क्या इन ज़मीनों को सैराब कर पाओगे...
ज़ंजीरों में जकड़े हुए क़ैदी की सूरत रेग के सैल में एक बगूला हाँप रहा है अपने वजूद से ख़ौफ़-ज़दा है...
दयार-ए-दिल न रहा बज़्म-ए-दोस्ताँ न रही अमाँ की कोई जगह ज़ेर-ए-आसमाँ न रही रवाँ हैं आज भी रग रग में ख़ून की मौजें मगर वो एक ख़लिश वो मता-ए-जाँ न रही...
सोते सोते चौंक उठी जब पलकों की झंकार आबादी पर वीराने का होने लगा गुमान वहशत ने पर खोल दिए और धुँदले हुए निशान हर लम्हे की आहट बन गई साँपों की फुन्कार...
अक्स को क़ैद कि परछाईं को ज़ंजीर करें साअत-ए-हिज्र तुझे कैसे जहाँगीर करें पाँव के नीचे कोई शय है ज़मीं की सूरत चंद दिन और इसी वहम की तश्हीर करें...
जुस्तुजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने सब का अहवाल वही है जो हमारा है आज ये अलग बात कि शिकवा किया तन्हा हम ने...
गुज़रे थे हुसैन इब्न-ए-अली रात इधर से हम में से मगर कोई भी निकला नहीं घर से इस बात पे किस वास्ते हैरान हैं आँखें पतझड़ ही में होते हैं जुदा पत्ते शजर से...
हँस रहा था मैं बहुत गो वक़्त वो रोने का था सख़्त कितना मरहला तुझ से जुदा होने का था रत-जगे तक़्सीम करती फिर रही हैं शहर में शौक़ जिन आँखों को कल तक रात में सोने का था...