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कहा ये आज हमें फ़हम ने सुनो साहिब ये बाग़-ए-दहर ग़नीमत है देख लो साहिब जो रंग-ओ-बू के उठाने में हज़ उठा लीजे मबादा फिर कफ़-ए-अफ़्सोस को मलो साहिब...

बाग़ में लगता नहीं सहरा से घबराता है दिल अब कहाँ ले जा के बैठें ऐसे दीवाने को हम...

दुनिया में पादशह है सो है वो भी आदमी और मुफ़्लिस-ओ-गदा है सो है वो भी आदमी ज़रदार-ए-बे-नवा है सो है वो भी आदमी नेमत जो खा रहा है सो है वो भी आदमी...

अभी कहें तो किसी को न ए'तिबार आवे कि हम को राह में इक आश्ना ने लूट लिया...

वो मय-कदे में हलावत है रिंद-ए-मय-कश को जो ख़ानक़ाह में है पारसा को ऐश-ओ-तरब...

ये जवाहिर-ख़ाना-ए-दुनिया जो है बा-आब-ओ-ताब अहल-ए-सूरत का है दरिया अहल-ए-मअ'नी का सराब वो अज़ीमुश्शाँ मकाँ देती थीं जिन की रिफ़अतें हँस के ताक़-ए-आसमाँ को ताक़-ए-अबरू से जवाब...

'नज़ीर' अब इस नदामत से कहूँ क्या फ़-आहा सुम्मा-आहा सुम्मा-आहा...

जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ फूली नहीं बदन मैं समाती हैं रोटियाँ आँखें परी-रुख़ों से लड़ाती हैं रोटियाँ सीने उपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ...

मिरा ख़त है जहाँ यारो वो रश्क-ए-हूर ले जाना किसी सूरत से वाँ तक तुम मिरा मज़कूर ले जाना अगर वो शोला-रू पूछे मिरे दिल के फफूलों को तो उस के सामने इक ख़ोश-ए-अंगूर ले जाना...

भरे हैं उस परी में अब तो यारो सर-ब-सर मोती गले में कान में नथ में जिधर देखो उधर मोती कोई बुंदों से मिल कर कान के नर्मों में हिलता है ये कुछ लज़्ज़त है जब अपना छिदाते हैं जिगर मोती...

कभी तो आओ हमारे भी जान कोठे पर लिया है हम ने अकेला मकान कोठे पर खड़े जो होते हो तुम आन आन कोठे पर करोगे हुस्न की क्या तुम दुकान कोठे पर...

इक दम की ज़िंदगी के लिए मत उठा मुझे ऐ बे-ख़बर मैं नक़्श-ए-ज़मीं की निशस्त हूँ...

मिरी इस चश्म-ए-तर से अब्र-ए-बाराँ को है क्या निस्बत कि वो दरिया का पानी और ये ख़ून-ए-दिल है बरसाती...

अजब मुश्किल है क्या कहिए बग़ैर-अज़-जान देने के कोई नक़्शा नज़र आता नहीं आसान मिलने का...

मिरा दिल है मुश्ताक़ उस गुल-बदन का कि ये बाग़ इक गुल है जिस के चमन का वही ज़ुल्फ़ है जिस की निकहत से अब तक पड़ा ख़ून सूखे है मुश्क-ए-ख़ुतन का...

तू जो कल आने को कहता है 'नज़ीर' तुझ को मालूम है कल क्या होगा...

न गुल अपना न ख़ार अपना न ज़ालिम बाग़बाँ अपना बनाया आह किस गुलशन में हम ने आशियाँ अपना...

कल शब-ए-वस्ल में क्या जल्द बजी थीं घड़ियाँ आज क्या मर गए घड़ियाल बजाने वाले...

कुछ और तो नहीं हमें इस का ओजब है अब यानी वो शोख़ हम से ख़फ़ा बे-सबब है अब आह-ओ-फ़ुग़ान-ओ-गिर्या-ओ-अंदोह ओ दर्द ओ दाग़ जो जिंस-ए-इश्क़ है वो मिरे पास सब है अब...

नक़्श याँ जिस के मियाँ हाथ लगा पैसे का उस ने तय्यार हर इक ठाठ किया पैसे का घर भी पाकीज़ा इमारत से बना पैसे का खाना आराम से खाने को मिला पैसे का...

कल 'नज़ीर' उस ने जो पूछा ब-ज़बान-ए-पंजाब नेह विच मेंडी ए की हाल-ए-तुसादा वे मियाँ...

लिपट लिपट के मैं उस गुल के साथ सोता था रक़ीब सुब्ह को मुँह आँसुओं से धोता था तमाम रात थी और कुहनियाँ ओ लातें थीं न सोने देता था मुझ को न आप सोता था...

जब माह अघन का ढलता हो तब देख बहारें जाड़े की और हँस हँस पूस सँभलता हो तब देख बहारें जाड़े की दिन जल्दी जल्दी चलता हो तब देख बहारें जाड़े की और पाला बर्फ़ पिघलता हो तब देख बहारें जाड़े की...

दिल हम ने जो चश्म-ए-बुत-ए-बेबाक से बाँधा फिर नशा-ए-सहबा से न तिरयाक से बाँधा उस ज़ुल्फ़ से जब रब्त हुआ जी को तो हम ने शाने का तसव्वुर दिल-ए-सद-चाक से बाँधा...

देख कर कुर्ते गले में सब्ज़ धानी आप की धान के भी खेत ने अब आन मानी आप की क्या तअज्जुब है अगर देखे तो मुर्दा जी उठे चैन नेफ़ा की ढलक पेड़ू पे आनी आप की...

कितना तनिक सफ़ा है कि पा-ए-निगाह का हल्का सा इक ग़ुबार है चेहरे के रंग पर...

यक-ब-यक होगी सियाही इस क़दर जाती रही क्या कहें गोया सियाही यक सर-ए-मू भी न थी गो सफ़ेदी मू की यूँ रौशन है जूँ आब-ए-हयात लेकिन अपनी तो इसी ज़ुल्मात से थी ज़िंदगी...

इश्क़ फिर रंग वो लाया है कि जी जाने है दिल का ये रंग बनाया है कि जी जाने है नाज़ उठाने में जफ़ाएँ तो उठाईं लेकिन लुत्फ़ भी ऐसा उठाया है कि जी जाने है...

आया नहीं जो कर कर इक़रार हँसते हँसते जुल दे गया है शायद अय्यार हँसते हँसते इतना न हँस दिल उस से ऐसा न हो कि चंचल लड़ने को तुझ से होवे तयार हँसते हँसते...

ऐ दिल अपनी तू चाह पर मत फूल दिलबरों की निगाह पर मत फूल इश्क़ करता है होश को बर्बाद अक़्ल की रस्म-ओ-राह पर मत फूल...

झमक दिखाते ही उस दिल-रुबा ने लूट लिया हमें तो पहले ही उस की अदा ने लूट लिया निगह के ठग की लगावट ने फ़न से कर ग़ाफ़िल हँसी ने डाल दी फाँसी दुआ ने लूट लिया...

बदन गुल चेहरा गुल रुख़्सार गुल लब गुल दहन है गुल सरापा अब तो वो रश्क-ए-चमन है ढेर फूलों का...

पाया मज़ा ये हम ने अपनी निगह लड़ी का जो देखना पड़ा है ग़ुस्सा घड़ी घड़ी का उक़्दा तो नाज़नीं के अबरू का हम ने खोला अब खोलना है उस की ख़ातिर की गुल-झड़ी का...

ये जो उठती कोंपल है जब अपना बर्ग निकालेगी डाली डाली चाटेगी और पत्ता पत्ता खा लेगी होनहार बिरवा के पत्ते चिकने चिकने होते हैं बहुत नहीं कुछ थोड़े ही दिन में बेल फुनग को आलेगी...

गुलज़ार है दाग़ों से यहाँ तन-बदन अपना कुछ ख़ौफ़ ख़िज़ाँ का नहीं रखता चमन अपना अश्कों के तसलसुल ने छुपाया तन-ए-उर्यां ये आब-ए-रवाँ का है नया पैरहन अपना...

तूफ़ाँ उठा रहा है मिरे दिल में सैल-ए-अश्क वो दिन ख़ुदा न लाए जो मैं आब-दीदा हूँ...

दिल को ले कर हम से अब जाँ भी तलब करते हैं आप लीजिए हाज़िर है पर ये तो ग़ज़ब करते हैं आप मोरिद-ए-तक़्सीर गर होते तो लाज़िम थी सज़ा ये जफ़ा फिर कहिए हम पर किस सबब करते हैं आप...

ले के दिल मेहर से फिर रस्म-ए-जफ़ा-कारी क्या तुम दिल-आराम हो करते हो दिल-आज़ारी क्या तुम से जो हो सो करो हम नहीं होने के ख़फ़ा कुछ हमें और से करनी है नई यारी क्या...

दोस्तो क्या क्या दिवाली में नशात-ओ-ऐश है सब मुहय्या है जो इस हंगाम के शायाँ है शय...

कल मिरे क़त्ल को इस ढब से वो बाँका निकला मुँह से जल्लाद-ए-फ़लक के भी अहाहा निकला आगे आहों के निशाँ समझे मिरे अश्कों के आज इस धूम से ज़ालिम तिरा शैदा निकला...