कहा ये आज हमें फ़हम ने सुनो साहिब
कहा ये आज हमें फ़हम ने सुनो साहिब ये बाग़-ए-दहर ग़नीमत है देख लो साहिब जो रंग-ओ-बू के उठाने में हज़ उठा लीजे मबादा फिर कफ़-ए-अफ़्सोस को मलो साहिब ये वो चमन है नहीं एक से नहीं जिस में तबद्दुल इस का हर इक गुल से सोच लो साहिब कि था जो सुब्ह-ए-शगुफ़्ता न था वो शाम के वक़्त जो शाम था सो न देखा वो सुब्ह को साहिब पस इस मिसाल से ज़ाहिर है ये सुख़न यानी इसी तरीक़ से आलम में तुम भी हो साहिब जो सरनविश्त है होगा इसी तरह से 'नज़ीर' क़ज़ा क़ज़ा नहीं होने की कुछ करो साहिब

Read Next