कल मिरे क़त्ल को इस ढब से वो बाँका निकला
कल मिरे क़त्ल को इस ढब से वो बाँका निकला मुँह से जल्लाद-ए-फ़लक के भी अहाहा निकला आगे आहों के निशाँ समझे मिरे अश्कों के आज इस धूम से ज़ालिम तिरा शैदा निकला यूँ तो हम कुछ न थे पर मिस्ल-ए-अनार-ओ-महताब जब हमें आग लगाई तो तमाशा निकला क्या ग़लत-फ़हमी है सद-हैफ़ कि मरते दम तक जिस को हम समझे थे क़ातिल वो मसीहा निकला ग़म में हम भान-मती बन के जहाँ बैठे थे इत्तिफ़ाक़न कहीं वो शोख़ भी वाँ आ निकला सीने की आग दिखाने को दहन से मेरे शोले पर शोला भभूके पे भभूका निकला मत शफ़क़ कह ये तिरा ख़ून फ़लक पर है 'नज़ीर' देख टपका था कहाँ और कहाँ जा निकला

Read Next