ज़ाहिदो रौज़ा-ए-रिज़वाँ से कहो इश्क़ अल्लाह आशिक़ो कूचा-ए-जानाँ से कहो इश्क़ अल्लाह जिस की आँखों ने किया बज़्म-ए-दो-आलम को ख़राब कोई उस फ़ित्ना-ए-दौराँ से कहो इश्क़ अल्लाह...
यार ने हम को अगर रुस्वा कहा अच्छा कहा हम तो रुस्वा हैं ही क्या बे-जा कहा अच्छा कहा वस्फ़ उस के हसन का कुल्ली हुआ किस से गर जिस के जितना फ़हम में आया कहा अच्छा कहा...
इधर यार जब मेहरबानी करेगा तो अपना भी जी शादमानी करेगा दया दिल 'नज़ीर' उस को यूँ कह के ऐ जाँ कहोगे तो ये पासबानी करेगा...
उधर उस की निगह का नाज़ से आ कर पलट जाना इधर मरना तड़पना ग़श में आना दम उलट जाना कहूँ क्या क्या मैं नक़्शे उस की नागिन ज़ुल्फ़ के यारो लिपटना उड़ के आना काट खाना फिर पलट जाना...
है अब तो वो हमें उस सर्व-ए-सीम-बर की तलब कि ताइरान-ए-हवा से है बाल-ओ-पर की तलब जो कहिए हुस्न को ख़्वाहिश नहीं ये क्या इम्काँ उसे भी अहल-ए-नज़र से है इक नज़र की तलब...
किसी ने रात कहा उस की देख कर सूरत कि मैं ग़ुलाम हूँ इस शक्ल का बहर-सूरत हैं आइने के भी क्या ताले अब सिकंदर वाह कि उस निगार की देखे है हर सहर सूरत...
मियाँ दिल तुझे ले चले हुस्न वाले कहो और किया जा ख़ुदा के हवाले इधर आ ज़रा तुझ से मिल कर मैं रो लूँ तू मुझ से ज़रा मिल के आँसू बहा ले...
न दिल में सब्र न अब दीदा-ए-पुर-आब में ख़्वाब शिताब आ कि हमें आवे इस अज़ाब में ख़्वाब जहाँ भी ख़्वाब है और हम भी ख़्वाब हैं ऐ दिल अजब बहार का देखा ये हम ने ख़्वाब में ख़्वाब...
तन पर उस के सीम फ़िदा और मुँह पर मह दीवाना है सर से लय कर पाँव तलक इक मोती का सा दाना है नाज़ नया अंदाज़ निराला चितवन आफ़त चाल ग़ज़ब सीना उभरा साफ़ सितम और छब का क़हर यगाना है...
बुतों की मज्लिस में शब को मह-रू जो और टुक भी क़याम करता कुनिश्त वीराँ सनम को बंदा ब्रह्मणों को ग़ुलाम करता ख़राब ख़स्ता समझ के तू ने पियारे मुझ को अबस निकाला जो रहने देता तू गुल-रुख़ों में क़सम है मेरी मैं नाम करता...
साक़ी ये पिला उस को जो हो जाम से वाक़िफ़ हम आज तलक मय के नहीं नाम से वाक़िफ़ मस्ती के सिवा दौर में उस चश्म-ए-सियह के काफ़िर हो जो हो गर्दिश-ए-अय्याम से वाक़िफ़...
गुलशन-ए-आलम में जब तशरीफ़ लाती है बहार रंग-ओ-बू के हुस्न क्या क्या कुछ दिखाती है बहार सुब्ह को ला कर नसीम दिल-कुशा हर शाख़ पर ताज़ा-तर किस किस तरह के गुल खिलाती है बहार...
गले से दिल के रही यूँ है ज़ुल्फ़-ए-यार लिपट कि जूँ सपेरे की गर्दन में जाए मार लिपट मज़े उठाते क़मर-बंद की तरह से अगर कमर से यार की जाते हम एक बार लिपट...
सुनिए ऐ जाँ कभी असीर की अर्ज़ अपने कूचे के जा पज़ीर की अर्ज़ छिद गया दिल ज़बाँ तलक आते हम ने जब की निगह के तीर की अर्ज़...
जितने हैं कुश्तगान-ए-इश्क़ उन के अज़ल से हैं मिले अश्क से अश्क नम से नम ख़ून से ख़ून गिल से गिल...
गुलज़ार है दाग़ों से यहाँ तन-बदन अपना कुछ ख़ौफ़ ख़िज़ाँ का नहीं रखता चमन अपना अश्कों के तसलसुल ने छुपाया तन-ए-उर्यां ये आब-ए-रवाँ का है नया पैरहन अपना...
चाह में उस की दिल ने हमारे नाम को छोड़ा नाम किया शग़्ल में उस के शौक़ बढ़ा कर काम को छोड़ा काम किया ज़ुल्फ़ दुपट्टा धानी मैं कर के पिन्हाँ मिरा दिल बाँध लिया सैद न खावे क्यूँ-कर जल जब सब्ज़े में पिन्हाँ दाम किया...
बज़्म-ए-तरब वक़्त-ए-ऐश साक़ी ओ नक़्ल ओ शराब कोई इसे कुछ कहो हम तो समझते हैं ख़्वाब मजमा-ए-ख़ूबाँ वले ज़मज़मा-ए-चंग वले कोई इसे कुछ कहो हम तो समझते हैं ख़्वाब...
बुतों की काकुलों के देख कर पेच पड़े हैं दिल पे क्या क्या पेच पर पेच तरीक़-ए-इश्क़ बे-रहबर न हो तय कि है ये रह निहायत पेच-दर-पेच...
दरिया ओ कोह ओ दश्त ओ हवा अर्ज़ और समा देखा तो हर मकाँ में वही है रहा समा है कौन सी वो चश्म नहीं जिस में उस का नूर है कौन सा वो दिल कि नहीं जिस में उस की जा...
कई दिन से हम भी हैं देखे उसे हम पे नाज़ ओ इताब है कभी मुँह बना कभी रुख़ फिरा कभी चीं-जबीं पे शिताब है है फँसा जो ज़ुल्फ़ में उस के दिल तो बता दें क्या तुझे हम-नशीं कभी बल से बल कभी ख़म से ख़म कभी ताब-चीन से ताब है...
सफ़ाई उस की झलकती है गोरे सीने में चमक कहाँ है ये अल्मास के नगीने में न तूई है न कनारी न गोखरू तिस पर सजी है शोख़ ने अंगिया बुनत के मीने में...
हम देखें किस दिन हुस्न ऐ दिल उस रश्क-ए-परी का देखेंगे वो क़द वो कमर वो चश्म वो लब वो ज़ुल्फ़ वो मुखड़ा देखेंगे मत देख बुतों की अबरू को हट याँ से तू ऐ दिल वर्ना तुझे एक आन में बिस्मिल कर देंगे और आप तमाशा देखेंगे...
मुझे इस झमक से आया नज़र इक निगार-ए-राना कि ख़ुर उस के हुस्न-ए-रुख़ को लगा तकने ज़र्रा-आसा ख़द-ओ-ख़ाल ख़ूबी-आगीं लब-ए-लाल पाँ से रंगीं नज़र आफ़त-ए-दिल-ओ-दीं मिज़ा सद-मुज़र्रत-अफ़ज़ा...
दामान-ओ-कनार अश्क से कब तर न हुए आह दो चार भी आँसू मिरे गौहर न हुए आह जैसे कि दिल उन लाला-अज़ारों के हैं संगीं दिल चाहने वालों के भी पत्थर न हुए आह...
बना है अपने आलम में वो कुछ आलम जवानी का कि उम्र-ए-ख़िज़्र से बेहतर है एक इक दम जवानी का नहीं बूढ़ों की दाढ़ी पर मियाँ ये रंग वसमे का किया है उन के एक एक बाल ने मातम जवानी का...
जब आँख उस सनम से लड़ी तब ख़बर पड़ी ग़फ़लत की गर्द दिल से झड़ी तब ख़ैर पड़ी पहले के जाम में न हुआ कुछ नशा तो आह दिलबर ने दी तब उस से कड़ी तब ख़बर पड़ी...
जिन दिनों हम को उस से था इख़्लास खुल रहा था वो जा-ब-जा इख़्लास उस को भी हम से थी बहुत उल्फ़त और हमें उस से था बड़ा इख़्लास...
ख़याल-ए-यार सदा चश्म-ए-नम के साथ रहा मिरा जो चाह में दम था वो दम के साथ रहा गया सहर वो परी-रू जिधर जिधर यारो मैं उस के साया-सिफ़त हर क़दम के साथ रहा...
मिज़्गाँ वो झपकता है अब तीर है और मैं हूँ सर पाँव से छिदने की तस्वीर है और मैं हूँ कहता है वो कल तेरे पुर्ज़े मैं उड़ाउँगा अब सुब्ह को क़ातिल की शमशीर है और मैं हूँ...
ये गिला दिल से तो हरगिज़ नहीं जाना साहिब सब ने जाना हमें पर तुम ने न जाना साहिब इन बयानों से ग़रज़ हम ने ये जाना साहिब आप को ख़ून हमारा है बहाना साहिब...
ऐ सफ़-ए-मिज़्गाँ तकल्लुफ़ बर-तरफ़ देखती क्या है उलट दे सफ़ की सफ़ देख वो गोरा सा मुखड़ा रश्क से पड़ गए हैं माह के मुँह पर कलफ़...
हो किस तरह न हम को हर दम हवा-ए-मतलब देखा जो ख़ूब हम ने दुनिया है जा-ए-मतलब जो गुल-बदन कि आया आग़ोश में हमारे कुछ और बू न निकली उस में सिवाए मतलब...
हँसे रोए फिरे रुस्वा हुए जागे बंधे छूटे ग़रज़ हम ने भी क्या क्या कुछ मोहब्बत के मज़े लूटे कलेजे में फफूले दिल में दाग़ और गुल हैं हाथों पर खिले हैं देखिए हम में भी ये उल्फ़त के गुल-बूटे...